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Wednesday, 9 July 2008

और लेफ्ट एक बार फिर ऐतिहासिक भूल कर बैठा

और लेफ्ट एक बार फिर ऐतिहासिक भूल कर बैठा

यह हमारे देश और देश की जनता की बिडम्बना ही है की अपने को जनता का प्रतिनिधि पार्टी कहने वाली लेफ्ट पार्टियाँ हमेशा से ऐतिहासिक भूलें करती आयीं हैं. उसकी ईमानदारी पर अविश्वास इसलिए भी नहीं कर सकते की वोह इसे तहे-दिल से स्वीकार भी करती आई है. कुछ-कुछ इस शक्ल में की 'लो जी फिर से एक ऐतिहासिक भूल हो गई. अब क्या करें. हम करना तो कुछ ऐसा चाहते थे. पर हो कुछ और ही गया.' इस बार भी लेफ्ट से ऐतिहासिक भूल हो ही गई. आज नहीं (क्यूंकि बैठकों में काफी वक्त लगता है) पर कल जरूर लेफ्ट वाले यह सच सबके सामने स्वीकार करेंगे की 'लो जी एक और भूल हो गई'. पर उसमें अभी काफी समय है.

आख़िर बेचारे वह भी क्या करें. मार्क्स-लेनिन ने इतना लिख डाला है की पढ़ते-पढ़ते तरुनाई में ही ऑंखें खरब कर लेते हैं. बाकि पता नही कितने विचारक हो चुके हैं. उनसे भी निपटना जरूरी होता है. आख़िर यही पढ़ाई तो उनकी 'पूंजी' है जिसके बल पर पोलिट ब्यूरो में बैठकर राजनीति करने का हक उन्हें मिलता है. वरना अगर जनता के बीच रहकर पैर घिस रहे होते तो बाटा की हजारों चप्लें घिसने के बाद भी शायद ही डिस्ट्रिक्ट कमिटी का चेहरा देख पाते. अब जब आँखों से साफ़ दिखाई ही नहीं दे तो गलती होनी तो स्वाभाविक ही है. अभी कुछ दिनों पहले ही एक पत्रकार बंधू कह रहे थे, 'परिवर्तन इतनी तेजी से हो रहा है की आपकी ऑंखें चुन्धियाँ जाएँगी. समय बिल्कुल राजधानी और शताब्दी एक्सप्रेस की तरह भाग रहा है. प्लेटफार्म पर खड़े किसी व्यक्ति को सिर्फ़ इतना ही दीखता है की कोई ट्रेन कुछ गुजर गई. उसपर लिखी इबारत नहीं दिखती.' यहाँ तो पहले से ही आँखों में मोतिअबिंद हुआ पड़ा है. ऐसे में कुछ खाक दिखेगा.

पर उनकी ईमानदारी पर आप सक नहीं कर सकते. देखियेगा कोई पांच साल बाद एक बयान आयेगा (आदत के मुताबिक) की 'लो जी एक और भूल हो गई'. कारण मैंने पहले की बताया है, आखिर लोकल कमिटियों से लेकर पोलित ब्यूरो तक कोई निर्णय लेने में इतना वक्त तो लगेगा ही. उसपर पार्टी कोई एक राज्य में थोड़े न है. तीन राज्यों में तो सरकार चला रहें हैं. उसपर थोड़ा बहुत आधार कुछ और राज्यों में भी है. कहीं आधार नहीं भी है तो क्या पार्टी तो है. वहां की भी राय सुनी जानी जरूरी है. फिर पार्टी के भीतर वाद-विवाद और बहस-मुबाहिसा का वातावरण बरक़रार रखने के लिए अलग-अलग धडे भी तो हैं. आखिर इन सबको समेटने में वक्त तो लगता ही है.

खैर, तो बात हो रही थी 'ऐतिहासिक भूल की'. लेफ्ट वाले यह समझकर सरकार को समर्थन दिए जा रहे थे की सरकार कोई भी जन-विरोधी कदम नहीं उठा रही है. मंहगाई का क्या. गलोब्लैजेशन का ज़माना है. मंहगाई भी आखिरकार ग्लोबल फेनोमेनों है. कब तक रोक पायेगी सरकार. पेट्रोल-डीज़ल का दम भी बढेगा. ग्लोबल वर्मिंग के ज़माने में फल-सब्जिओं और खाद्यान के दामों में तो आग लगेगी ही. कुछ भी है एक सेकुलर सरकार तो है. और इसे साम्राज्वाद विरोधी भी बनाकर ही दम लेंगे. मनमोहन और चिदम्बरम पहले भले ही वर्ल्ड बैंक की घुलामी बजा चुके हों. अब ऐसा कभी नहीं करने देंगे. उन्हें भी थोड़ा ह्यूमन टच भर देने की जरूरत है. वे ख़ुद ही समझ जायेंगे. कुछ ऐसा ही मुगालता पले बैठे थे हमारे लेफ्ट बंधू. कितने भोले हैं हमारे कर्णधार. इतने भोलेपन से पॉलिटिक्स करते हैं जैसे कोई बच्चा अपनी माँ के साथ पॉलिटिक्स करता है. चॉकलेट नहीं मिले तो रोने लगता है. माँ भी उसकी हर अदा जानती है. प्यार से झिड़क देती है. इतने भोलेपन पर ही शायद विनोद कुमार शुक्ल ने लिखा है: 'इतने भोले मत बन जन साथी, जैसे होते सर्कस के हाथी'. बेचारों को बिल्कुल नचा कर छोड़ दिया. चार साल तक अपना मतलब भी साधा और फ़िर ठेंगा भी दिखा दिया. साम्रार्ज्वादी आस्तीन के साँपों को तो डसना ही आता है. डंस लिया आखिरकार. पर लेफ्ट वाले बेचारे इसमे क्या करें. उन्होंने तो जी भरके कोशिश की इनका हृदय परिवर्तन हो जाए. नहीं हो सका तो समर्थन वापस भी ले ली. इससे ज्यादा क्या कर सकते थे.

अब अगर यह न्यूक्लियर डील हो जाती है. तो लेफ्ट की कोई जिम्मेदारी नही है. वो तो सरकार को अब समर्थन नहीं कर रहे. समाजवादी वाले इनके मुंहबोले भाई लोग कर रहे हैं. लालू-मुलायम को कितना चाहते थे बेचारे. क्या-क्या नहीं किया इनके लिए. दुनिया भर की तोहमतें लीं. फिर भी वे धोका देकर कांग्रेस के खेमे में चले गए. और शुक्र है की अभी तक कांग्रेस के खेमें में है. वह भी लेफ्ट की वजह से, नहीं तो बीजेपी के खेमें में चले जाते तो क्या कर लेते. लेफ्ट का पढाया पाठ की साम्प्रयादिकता बहुत बड़ा खतरा है, उन्हें याद रह गया है. आखिर सब कुछ भूलने में वक्त तो लगता ही है. वरना हो सकता है वह सीधे बीजेपी के खेमे में ही चले जाते. आख़िर अमर सिंह ने तो कह ही दिया, सुरजीत साहब की दिल्ली इच्छा थी की वह कांग्रेस के नजदीक आ जायें सो वो आ गए. कुछ अलग थोड़े ही कर रहे हैं. सुर्जितवाद को ही अपना रहे हैं.

यह भी कम बड़ी विडम्बना नहीं है की लेफ्ट बंधू जिसे पानी पी पी के कोसते हैं वह होकर ही रहता है. बीजेपी को इतना कोसा की उनकी सरकार तक बन गई. साम्प्रय्दिकता के नम पर क्या क्या और किस्से समझौता नहीं किया. पर जितना उसे कमजोर करने की कोशिश करते हैं. मजबूत होती जाती है. अभी देखिये. कांग्रेस को समर्थन दिया था की बीजेपी शाषण से दूर रहे पर उसके कदम १० जनपथ की तरफ बढ़ते ही जा रहे है. अब डील के पीछे पड़े थे वह भी अब होकर ही रहेगा. लेफ्ट की छवि भी कुछ उलटी बन गई है. अब तो खाए पिए लोग यह सोचने लगे हैं की लेफ्ट विरोध कर रहें हैं तो जरूर वह देश के हित में होगा. भाई -बंधुओं को इसपर भी जरा विचार करना होगा.

कितने मौके आए जब सरकार गिरा सकते थे पर नहीं बीजेपी आ जाएगा का भय दिखाते रहे. कुछ कुछ उस आदमी की तरह जो झूट मूठ हॉल मचाता था की शेर आया. लोग दौड़-दौड़कर परेशान. औ रजब शेर आया तो कोई भी साथ नही था. यही हाल हो गया बेचारों का. तीसरा मोर्चा का बनता पलीता फ़िर लुढ़क गया. और बेचारे अकेले खड़े हैं. कुछ कुछ उन्ही अभिशप्त आत्मायों की तरह जो अकेले रहने को अभिशप्त हैं.

हो सकता है पाँच साल वाद वाले बयान में यह भी आए, की हमने सरकार को समर्थन देना ही नहीं था. यह भी एक ऐतिहासिक भूल थी. पर इसकी सम्भावना कम है. पर कहने वाले तो कहेंगे ही की यूपीऐ सरकार को समर्थन देना भूल थी. पर ऐसा नक्सल वाले कहते हैं. या बीजेपी वाले. यह कहकर दरकिनार कर दिया जाएगा. उन्हें यह बात भी स्वीकार करने में हिचक होगी की सरकार से थोड़ा पहले समर्थन वापस ले लेते तो शायद न सरकार बच पाती न ही डील सम्भव होता. पर बेचारे क्या करते . मनमोहन ने उड़ने के बाद बोला की जा रहे हैं डील करने. लेफ्ट वाले तो समझ रहे थे. जायेंगे मौज-मस्ती कर के वापस आ जायेंगे. ऐसे सम्मिट तो होते ही रहते हैं.

पर कहीं न कहीं किसी न किसी लोकल कमिटी की फाइल में जरूर दबा रह जाएगा की 'देर हो गई थी'.

मृत्युंजय प्रभाकर

Sunday, 15 July 2007

माइक थेवर को जानना ज़रूरी है ।

माइक थेवर। हज़ार शोहरतमंद नामों में एक गुमनाम। मगर काम बेहद ज़रूरी। माइक थेवर वो काम कर रहे हैं जिसकी हिम्मत बड़े बड़े उद्योगतियों को नहीं हो सकी। माइक की एक कंपनी है। अमरीका के फिलाडेलफिया शहर में। १६० करोड़ टर्नओवर वाली कंपनी। माइक ने १५ साल की कड़ी मेहनत से तैयार की है। इसकी एक नीति है जो नई बहस और साहस के लिए प्रेरित करती है।माइक अपनी कंपनी के लिए सौ फीसदी अफरमेटिव एक्शन के तहत लोगों को नौकरी देते हैं। अफरमेटिव एक्शन यानी जब कंपनी सामाजिक आर्थिक रूप से पिछड़े तबके को आगे लाने के लिए नौकरियां देती हैं। अमरीका में सारी बड़ी कंपनियां करती हैं। पत्रकारिता के बड़े अखबार वाशिंगटन पोस्ट में भी अफरमेटिव एक्शन लागू है। यानी तथाकथित मेरिट नहीं होने पर भी नौकरी।माइक अनुसूचित जाति जनजाति और ओबीसी के लड़कों को नौकरी देते हैं। हाल ही में उन्होंने २५ लड़कों का चयन किया है। इनमें से कोई भी नौकरी पाने की पात्रता नहीं रखता है। अमरीका न हिंदुस्तान में। लेकिन माइक इन्हें मुंबई में अमरीकन अंग्रेजी की ट्रेनिंग देंगे फिर ले जाएंगे। इससे पहले भी वो १५ लड़कों को नौकरी दे चुके हैं। ये लड़के मुंबई के धारावी के रहने वाले हैं। ज़्याजातर के मां बाप बड़ा पाव बेचने और आटो चलाने वाले हैं। वो अब अपने घर हर महीने पच्चीस हजार भेजते हैं। मां बाप की भी जिंदगी बदल रही है।
\u003cbr\>ये लड़के भी नौकरी पाने की पात्रता नहीं रखते थे। इनके चयन की एक ही पात्रता देखी गई...सामाजिक और आर्थिक रुप से सताए हुए तबके की पात्रता। माइक ने इन्हें व्हाईट कालर वाला बना दिया। जिसके लिए कई लोग लाखों खर्चते हैं। डिग्री लेते हैं। फिर कहते हैं हमारे पास मेरिट है। माइक सोचते हैं कि यह सब कुछ नहीं होता। काम का प्रशिक्षण देकर काम कराया जा सकता है। और वो शायद दुनिया की अकेली कंपनी के मालिक हैं जिनकी कंपनी में यह नीति सत्ताईस या बाइस प्रतिशत नहीं बल्कि सौ प्रतिशत लागू है। यानी सारी नौकरी अनुसूचित जाति जनजाति और पिछड़े तबके के कमजोर छात्रों को।\u003cbr\>\u003cbr\>\u003cbr\>अब माइक कौन हैं। वो केरल के गरीब ओबीसी परिवार के हैं। कई साल पहले इनका परिवार मुंबई के धारावी आ कर रहने लगा। स्लम में। माइक ने खुद बड़ा पाव बेचा है। मुंबई के निर्मला निकेतन से बैचलर इन सोशल साइंस की डिग्री ली। टाटा इंस्टि्यूट आफ सोशल साइंस से मास्टर डिग्री ली। एक दलित लड़की से शादी की। तमाम विरोध के बाद भी। और स्कालरशिप पर अमरीका चले गए। वहां उन्होंने स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वाली एक कंपनी टेम्प्ट सल्यूशन कायम की। एक काययाब कंपनी। कामयाबी के बाद माइक को एक बड़ी ज़िम्मेदारी का अहसास हुआ। पिछड़े और सताए हुए तबके को लोगों को मौका देना का। जिस समाज से उन्हें मिला वो उसे वापस करना चाहते थे।\u003cbr\>\u003cbr\>फिर उनकी कंपनी की यह लाजवाब नीति सामने हैं। वहां किसी को मेरिट के आधार पर नौकरी नहीं मिलती है। माइक चुनते हैं। चुनते समय ध्यान रखते हैं कि जिसे मौका मिल रहा है उसमें भी सामाजिक प्रतिबद्धता है या नहीं। यानी वो आगे जाकर बाकी को आगे लाने में मदद करेगा या नहीं। माइक जल्दी ही अपनी कंपनी के लिए बिहार, उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर राज्यों के ऐसे लड़कों को मौका देने की योजना लागू करने वाले हैं।\u003cbr\>\u003cbr\>यह कहानी इसलिए सुनाई कि एक दो रोज पहले भारत के बड़े उद्योगपति प्रधानमंत्री से मिलने गए। वो दो साल से अफरमेटिव एक्शन के नाम पर आना कानी कर रहे हैं। कहते हैं सरकार की बेकार आईटीआई संस्थानों को दीजिए और हम वहां ट्रेनिंग देकर देखेंगे कि ये काम करने लायक है या नहीं। क्यों भई अपने बाप की जमीन पर उद्दोग खड़े किए हैं क्या? तमाम रियायतें, आयात निर्यात नीति में बदलाव, फ्री की ज़मीन और आप दुनिया से कंपीट कर सके उसके लिए सरकार का समर्थन। कोई उद्योग कह दे कि उनकी कामयाबी में इन हिस्सों का योगदान नहीं है । मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं कि जिन गरीब बच्चों को माइक अमरीका ले जा रहे हैं अपनी कंपनी में नौकरी देने के लिए, वो गरीब बच्चे वहां के फुटपाथ या तीसरे दर्जे के होटल में नहीं ठहराये जाते हैं। वो सभी माइक के घर में रहते हैं। इसीलिए कहता हूं माइक थेवर को जानना ज़रूरी है ।",1]
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ये लड़के भी नौकरी पाने की पात्रता नहीं रखते थे। इनके चयन की एक ही पात्रता देखी गई...सामाजिक और आर्थिक रुप से सताए हुए तबके की पात्रता। माइक ने इन्हें व्हाईट कालर वाला बना दिया। जिसके लिए कई लोग लाखों खर्चते हैं। डिग्री लेते हैं। फिर कहते हैं हमारे पास मेरिट है। माइक सोचते हैं कि यह सब कुछ नहीं होता। काम का प्रशिक्षण देकर काम कराया जा सकता है। और वो शायद दुनिया की अकेली कंपनी के मालिक हैं जिनकी कंपनी में यह नीति सत्ताईस या बाइस प्रतिशत नहीं बल्कि सौ प्रतिशत लागू है। यानी सारी नौकरी अनुसूचित जाति जनजाति और पिछड़े तबके के कमजोर छात्रों को।अब माइक कौन हैं। वो केरल के गरीब ओबीसी परिवार के हैं। कई साल पहले इनका परिवार मुंबई के धारावी आ कर रहने लगा। स्लम में। माइक ने खुद बड़ा पाव बेचा है। मुंबई के निर्मला निकेतन से बैचलर इन सोशल साइंस की डिग्री ली। टाटा इंस्टि्यूट आफ सोशल साइंस से मास्टर डिग्री ली। एक दलित लड़की से शादी की। तमाम विरोध के बाद भी। और स्कालरशिप पर अमरीका चले गए। वहां उन्होंने स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वाली एक कंपनी टेम्प्ट सल्यूशन कायम की। एक काययाब कंपनी। कामयाबी के बाद माइक को एक बड़ी ज़िम्मेदारी का अहसास हुआ। पिछड़े और सताए हुए तबके को लोगों को मौका देना का। जिस समाज से उन्हें मिला वो उसे वापस करना चाहते थे।फिर उनकी कंपनी की यह लाजवाब नीति सामने हैं। वहां किसी को मेरिट के आधार पर नौकरी नहीं मिलती है। माइक चुनते हैं। चुनते समय ध्यान रखते हैं कि जिसे मौका मिल रहा है उसमें भी सामाजिक प्रतिबद्धता है या नहीं। यानी वो आगे जाकर बाकी को आगे लाने में मदद करेगा या नहीं। माइक जल्दी ही अपनी कंपनी के लिए बिहार, उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर राज्यों के ऐसे लड़कों को मौका देने की योजना लागू करने वाले हैं।यह कहानी इसलिए सुनाई कि एक दो रोज पहले भारत के बड़े उद्योगपति प्रधानमंत्री से मिलने गए। वो दो साल से अफरमेटिव एक्शन के नाम पर आना कानी कर रहे हैं। कहते हैं सरकार की बेकार आईटीआई संस्थानों को दीजिए और हम वहां ट्रेनिंग देकर देखेंगे कि ये काम करने लायक है या नहीं। क्यों भई अपने बाप की जमीन पर उद्दोग खड़े किए हैं क्या? तमाम रियायतें, आयात निर्यात नीति में बदलाव, फ्री की ज़मीन और आप दुनिया से कंपीट कर सके उसके लिए सरकार का समर्थन। कोई उद्योग कह दे कि उनकी कामयाबी में इन हिस्सों का योगदान नहीं है । मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं कि जिन गरीब बच्चों को माइक अमरीका ले जा रहे हैं अपनी कंपनी में नौकरी देने के लिए, वो गरीब बच्चे वहां के फुटपाथ या तीसरे दर्जे के होटल में नहीं ठहराये जाते हैं। वो सभी माइक के घर में रहते हैं। इसीलिए कहता हूं माइक थेवर को जानना ज़रूरी है ।

By Ravish Kumar...
(Ravish is one of the brilliant and social relevant tv journalist of India associated with NDTV. He can be contacted on RAVISH@ndtv.com. This story is also on his blog
http://naisadak.blogspot.com/)

Tuesday, 29 May 2007

एक लेखक का काम क्‍या है

दिल्‍ली में हर रविवार को कुछ युवा लेखक एक पार्क में जुटते रहे हैं। पिछले दिनों राजधानी की सघन सृजनात्‍मक हलचलों में से आप इसे भी गिन सकते हैं। वे युवा जो रचनात्‍मक स्‍तर पर एक अच्‍छे समाज की कल्‍पना के साथ सक्रिय हों, उनका एक जगह लगातार जुटना एक ऐतिहासिक परिघटना की तरह ही है। ज़ाहिर है, जहां समूह होगा और लोकतंत्र उस समूह की बुनियादी शर्त होगी- मतभेद भी होंगे। ऐसे ही मतभेदों में से एक रहा- रचनात्‍मक सक्रियता की व्‍याख्‍याओं को लेकर। कुछ मानते रहे कि देश भर में होने वाले दमन और उसके खिलाफ खड़े जनांदोलनों के साथ प्रतीकात्‍मक सहमति के तौर पर एक लेखक को कलम के अलावा भी अपनी सक्रियता दिखानी होगी, तो कुछ को प्रदर्शन से जुड़ी हुई ऐसी सक्रियता गै़र रचनात्‍मक ज्‍यादा लगती रही। बात समूह टूटने तक पहुंच गयी है। लेकिन जो बहस है, वो सिर्फ इस समूह के लिए ज़रूरी नहीं है- रचनात्म‍कता की समझ को लेकर एक व्‍यापक संदर्भ में ज़रूरी बहस है। इसलिए हम दो नितांत व्‍यक्तिगत चिट्ठियों को मोहल्‍ले में बांच रहे हैं- ताकि विमर्श का ये संदर्भ ज्‍यादा से ज्‍यादा लोगों से जुड़े।
पहला पत्र, सहमतों के लिए एक खुला पत्र

साम्राज्‍यवाद विरोधी लेखक मंच एक नकारात्मक नाम है। संभवतः इसीलिए क्‍योंकि इसके तहत अब तक तमाम विरोधी तेवर ही प्रकट हुए हैं। वे रचना के नाम पर क्या कर रहे हैं, क्या कर सकते हैं, इसके लिए जगह बनती यहां नहीं दीखती है। लेखक के लिए मात्र रचना ही उसकी सक्रियता का प्रकाशित दस्तावेज होती है और उसकी सक्रियता की पड़ताल उसी आधार पर होती है। लेखक संघ में लेखक के लिए रचना का क्या मानी होता है यह जाहिर है। वह कहानी, कविता, आलेख, रिपोर्ताज आदि ही है, थोथी बकवास इसका विकल्प नहीं हो सकता। इस संघ में रचनात्मकता का यह हाल है कि हम केवल दूसरों की रचनाओं में मीन-मेख निकालते हैं। अपनी हालत यह है कि हम रद्दी रचनाएं छपवाकर उसके रद्दी होने की घोषणा भी अनंत हेकड़ी के साथ करते हैं। हमारी समझ से इससे ज्यादा गैर जिम्मेदाराना व्यवहार किसी लेखक संघ के लिए कुछ और हो ही नहीं सकता। जबकि वह लेखक ही भविष्य के इस संघ का घोषित प्रतिनिधि हो।

इन नकारात्मक संदर्भों में हम पहले तो लेखक संघ का नाम बदलकर वैज्ञानिक लोकतांत्रिक समाजवादी लेखक संघ रखना चाहेंगे। इसका काम संघ के युवा लेखकों की रचनात्मकता की पड़ताल व उसका विकास होगा। किसी लेखक की सक्रियता का अंतिम पैमाना उसका लेखन होगा, उसकी मौखिक दलीलें नहीं। हम अपने और बाहर के नवतुरिया लेखकों की रचनाओं को सामने लाएंगे और उनका सार्वजनिक पाठ कराएंगे। अपनी एक-एक पाई जोड़कर जुटायी गयी राशि को पिछले आयोजनों जैसे आयोजनों पर खर्च करने की हमारी कोई मंशा नहीं है। उस तरीके से सस्ता प्रचार पाना हमारा ध्येय नहीं है। किसी भी वैसे आयोजन को करने से पहले हम बुलेटिन, पुस्तिका, पत्रिका आदि निकालकर अपनी स्थिति स्पष्ट करेंगे। उसके बाद ही हम वैसा प्रदर्शनकामी, व्ययी आयोजन करेंगे, वह भी साल में एक या ज्यादा से ज्यादा दो होंगे।

इस लेखक संघ में शामिल लोगों के लिए हर सप्ताह बैठक में आना अनिवार्यता नहीं होगी। महीने में अगर कोई एक बार भी शामिल हो पाता है, तो उसकी वही अहमियत होगी जो हर सप्ताह नियमित आनेवालों की होगी। लेखकों का महत्व उनकी रचना के आधार पर होगा, उनकी उपस्थिति या जुमलेबाजी के आधार पर नहीं। अगर महीनों हमारी बैठकों में न भी कोई रचनाकार अगली बार किसी बेहतरीन रचना के साथ उपस्थित होगा तो उसकी सक्रियता को किसी से कम करके नहीं आंका जाएगा। सक्रियता पर सवाल पूछकर हम किसी लेखक को लज्जित नहीं करेंगे। क्योंकि सक्रियता ऐसी चीज नहीं है, जिसे ऊंची आवाज में बोलकर या सड़क पर खड़े होकर, चिल्ला कर दर्शायी जा सके। सक्रियता को संघ रचनात्मकता के आईने में देखेगा, इसके लिए कोई दूसरी कसौटी मान्य नहीं होगी। बाकी सक्रियता उसका निजी मुआमला होगा। उससे जुड़े सवाल यहां नहीं उठेंगे। सिगरेट फूंकना या डेढ़ इंच की पार्टियों की सर्वाधिक उल्लसित होकर चर्चा करने को हम सक्रियता के विरोध में अय्याशी या कुंठा से जोड़कर देखेंगे।

पत्रकारिता से जुड़े लेखक अगर अच्छी-बुरी घटनाओं की चर्चा करते हैं या रपट लिखते हैं या कहीं आते-जाते हैं, उसका मात्र सूचनात्मक महत्व ही होगा, लेखकीक सक्रियता से उसका कोई लेना-देना नहीं होगा। क्योंकि वह सक्रियता उनकी रोटी से जुड़ा एक पेशेवर कार्य भर माना जाएगा। स्वतंत्र पत्रकार इसके अपवाद होंगे।

पिछली बैठक में शब्द को पकड़ने पर आपत्ति की गयी थी। हमारा मानना है कि आम लोगों तक लेखक के रूप में हमारे शब्द ही पहुंचेंगे, हमारे चेहरे की छटा उसका विकल्प नहीं बनेगी।
कुमार मुकुल, स्वतंत्र मिश्र, पंकज चौधरी
अरविंद शेष, पंकज पराशर, अच्युतानंद मिश्र


प्रतिपत्र

पर्चा पढ़ा। पर शायद मैं इन दलीलों से सहमत न हो पाऊं। वैसे ये फर्स्‍ट हैंड रिएक्‍शन है और मुझे भी और सोचने की ज़रूरत है। पर मैं अपना नज़रिया इस पर्चे पर आपको लिख रहा हूं। सहमति-असहमति अपनी जगह है, पर कृपया इसे अन्‍यथा न लें। बहुत सालों पहले हमारे हिल्‍सा (बिहार) में, जहां से मैं हूं, एक संघ के आदमी से मेरी बात होती थी। बात नहीं बहस कहना ज्‍यादा उचित होगा। उनका कहना था कि आपलोग हर चीज़ का विरोध करते हैं और मुर्दाबाद करते हैं। आपके विज़न में और कुछ है ही नहीं। लालू और मुलायम जैसे समाजवादियों के सत्ता में आने और असफल हो जाने पर किसी ने कमेंट में कहा था कि चूंकि ये सिर्फ विरोध करना जानते थे, वही करके यहां तक पहुंचे थे, सो कोई अच्‍छा काम नहीं कर पाये। मुझे समझ में नहीं आता, लालू-मुलायम जैसे लोग सत्ता संतुलन तो सीख जाते हैं, पर अच्‍छा काम करना कैसे नहीं सीख पाते। मेरे ख़याल से ये उनकी ईमानदारी का प्रश्‍न ज्‍यादा है, योग्‍यता का उतना नहीं।

पर्चे में सबसे ऊपर जो बात है, वो मुझे कुछ कुछ वैसी ही लग रही है। चूंकि टाइटल में ही विरोध है, अत: यह एक नकारात्‍मक नाम है। मैं इससे सहमत नहीं हूं। मार्क्‍स का सारा लेखन कैपिटलिज्‍म और इसकी प्रवृत्तियों के खिलाफ है। इस मतलब यह नहीं कि उनके लेखन में कोई सकारात्‍मक पक्ष नहीं है। वैसे भी साम्राज्‍यवाद पूंजीवाद का वो स्‍वरूप है, जिसका विरोध ही हो सकता है। समर्थन तो कतई नहीं।

दूसरी बात ये कि चाहे गांधीवादी हों, समाजवादी हों, कम्‍युनिस्‍ट हों या नक्‍सल, सारे लोग एक राय से साम्राज्‍यवाद के खिलाफ हैं। और ये एक व्‍यापक सहमति का आलेख हो सकता है, जो हमारे मंच में है। कम से कम मैं तो यही समझ कर इसमें अपने को शामिल मानता हूं। एक और बात पर्चे में लिखी है कि लेखक की पहचान उसके लेखन से होना चाहिए, राजनीतिक सक्रियता से नहीं। मैं ये ज़रूर मानता हूं कि लेखक की पहचान उसकी रचना से होती है, पर लेखक सिर्फ लेखक ही है, ऐसी बात मुझे नहीं लगती। एक तो ये कि वो किसी समाज, राष्‍ट्र का अंग होता है। पहले वो एक नागरिक होता है, बाद में लेखक या कुछ और। अगर कोई ये कहे कि मज़दूरों को सिर्फ मज़दूरी से मतलब रखना चाहिए, और किसी चीज़ से नहीं, क्‍योंकि उसका काम मज़दूरी करना है और उसकी पहचान उसके अच्‍छे काम से ही है, जैसा कि आप कह रहे हैं कि लेखक का उसकी रचना से- तो ये ठीक नहीं है। हां, अगर कोई मीन-मेख निकालता है तो ग़लत है, चाहे जो भी हो। किसी भी रचना का क्रिएटिव क्रिटिक होना चाहिए न कि उसका मज़ाक उड़ाना। चाहे कोई अपनी रचना का करे या किसी और की- मेरी नज़र में ये ग़लत है।

आप लिख रहे हैं कि पत्रकारीय चीज़ों का महत्‍व नहीं होगा। फिर तो मैं वैसे ही बाहर हो जाऊंगा। क्‍योंकि मैं कविता-कहानी वगैरह नहीं लिखता। दरअसल लिखना ही नहीं आता। आप भी वही ग़लती दोहरा रहे हैं, जिसकी अपेक्षा आप दूसरों से नहीं करते। आप नहीं चाहते किसी व्‍यक्ति या रचना का मज़ाक उड़ाया जाए और खुद व्‍यक्ति का मज़ाक उड़ा रहे हैं। जिस छोटी बात पर वहां बहस शुरू हुई थी, वो इतनी बड़ी नहीं कि उसे इतना तूल दिया जाए क्‍योंकि मैं वहां खुद था।

उम्‍मीद करता हूं, सब मिल कर कुछ अच्‍छा करने की कोशिश करेंगे क्‍योंकि वक्‍त की यही मांग है। अगर कोई ग्रुप असफल होता है, या जनता के हित में चल रहे किसी आंदोलन या काम में रुकावट आती है, असफलता मिलती है, तो ये हम सबकी विफलता मानी जाएगी। कल कोई ये नहीं पूछेगा कि वजह क्‍या थी। लोग बस इतना ही पूछेंगे कि आप चुप क्‍यों थे। आपको ब्रेख्‍त की कविता याद होगी। जहां तक लेखकों की साहित्‍य से इतर सक्रियता का सवाल है- हमारे सामने वाल्‍टर बेंजामिन, क्रिस्‍टोफर कॉडवेल, लोर्का, नेरुदा से लेकर तमाम तरह के उदाहरण हैं। मैं खुद को इसी परंपरा में रखना चाहूंगा।

उम्‍मीद करते हैं आप मेरे तर्कों को तरजीह देंगे। इसे किसी चश्‍मे से नहीं देखेंगे।

आपका,
मृत्‍युंजय

you can also look it at mohalla.blogspot.com

Monday, 28 May 2007

कौन मार रहा है किसानों को

हम एक ऐसे देश के नागरिक हैं, जहां चारों ओर त्राहिमाम है और देश का शासक वर्ग रोम के तानाशाह नीरो की तरह जीडीपी विकास दर की मधुर धुन बजा रहा है। शासक वर्ग की खाल इतनी मोटी हो चुकी है कि इन पर किसी भी चीज का असर नहीं होता। एक तरफ देश का हर छोटा-बड़ा राजनेता करोड़ों के हेर-फेर का आरोपी या दोषी है, हमारे देश के उद्यमी अरबपतियों की सूची में जापान के उद्यमियों को पीछे छोड़ चुके हैं, वहीं दूसरी तरफ देश का बहुसंख्यक हिस्सा भुखमरी के कगार पर है। अकारण नहीं है कि इस साल यू-एन-डी-पी द्वारा जारी किये गये मानव विकास सूचकांक में भारत का स्थान 126 वां है। किसानों द्वारा आत्महत्या की खबरें अब अखबारों में जगह नहीं पातीं, क्योंकि यह रोज़ की बात हो चुकी है और ब्रेकिंग न्यूज के इस ज़माने में किसी को भी चौंकाने वाली खबर नहीं रह गयी है। देश का प्रधानमंत्री ऐसे ही एक क्षेत्र में जाकर कुछ राहत पैकेज की घोषणा कर आता है और अपने कर्तव्य की इतिश्री मान कर बैठ जाता है। जबकि राहत पैकेज के उसके एलान के बाद उसी इलाक़े में किसानों की आत्महत्या की दर और भी बढ़ जाती है। देश के बाकी हिस्सों में जो हो रहा है, अगर उसे भी शामिल कर लें, तो इस देश को आत्महंता देश घोषित करने की नौबत आ जाएगी। याद करें यह वही देश है, जहां एक समय किसान इतने आत्मनिर्भर थे कि कहावत प्रचलित थी, कोऊ नृप हो हमें का हानी।

आश्‍चर्य यह है कि आंकड़ों में हर साल गरीबी घटने की बात बतायी जाती है। अभी हाल में आयी एक रिपोर्ट में बड़े फख्र के साथ यह दिखलाया गया कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या घट कर मात्र तीस करोड़ रह गयी है। पर गरीबी रेखा से पार पाने वाले और इसके नीचे रह जाने वाले लोगों की आय का आंकड़ा देखें, तो आप अपने रहनुमाओं की बाजीगरी देख कर हैरान रह जाएंगे। राजधानी दिल्ली में जो परिवार रोज 14 रूपये से अधिक खर्च करता है, उसे गरीबी रेखा से ऊपर माना गया है। जितने रुपयों में दिल्ली जैसे शहर में एक व्यक्ति का नाश्‍ता भी नहीं आता, उतना खर्च एक पूरे परिवार के लिए कैसे पूरा हो सकता है, यह तो बस आंकड़ों के बाजीगर ही समझ सकते हैं। यही हाल अन्य राज्यों का भी है। कुछ महीने पहले के एक सर्वे में यह तथ्य सामने आया था कि देश के 25 करोड़ परिवारों की रोज की आमदनी 12 रूपये से भी कम है। उस पर मुश्किल यह है कि ये सारे आंकड़े बाजीगरों के ही हैं।

सवाल उठता है यह सब क्यों कर घटित हो रहा है। सवाल यह भी है कि अगर भूमंडलीकरण इतना ही सर्वनाशी है, तो फिर शासक वर्ग इसके पीछे क्यों पड़ा है। इसका सीधा सा अर्थ है कि देश का शासक वर्ग और इसकी जमात इन परिवर्तनों से खुश है। और इसका सीधा असर साफ-साफ दिखता भी है। जो शहरी मध्य वर्ग कल तक 15-20 हजार की नौकरी को बड़ी उपलब्धि मानता था, आज वह लाखों में खेल रहा है। भले ही आबादी के हिसाब से यह तबका छोटा हो, पर इसने शहरी अर्थतंत्र को एक नयी गति दी है। घर-घर तक पसरता बाजार और मॉल इसकी पहचान बन चुके हैं। जबकि दूसरी तरफ किसान आत्महत्या को विवश और लाचार हैं। पर क्या विकास की इस गुलाबी तस्वीर और देश के बहुसंख्यक लोगों की दुश्‍वारी के बीच कोई रिश्‍ता हो सकता है? ऐसा होना तो नहीं चाहिए, पर दुर्भाग्य से ऐसा ही है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ऐसे ही विराधाभासों पर टिकी होती है।

भारत में इस खास तरह के पूंजीवादी संक्रमण पर बात करना चाहें, तो हमें इसकी पृष्‍ठभूमि में झांकने की जरूरत महसूस होगी। भूमंडलीकरण का दौर हमारे देश में 1990 के समय परवान चढ़ी। यह वही दौर था जब देश में मंडल और कमंडल की राजनीति भी उफान पर थी। भारतीय इतिहास को पूरी तरह बदल देनेवाली इन तीन परिघटनाओं पर अलग-अलग काफी बात हो चुकी है। कुछ लोगों ने मंडल और कमंडल आंदोलन को आपस में जोड़ कर देखने की कोशिश भी की है। पर 'मंडल', 'कमंडल' और 'भूमंडलीकरण' को जोड़कर देखने की कोशिश शायद ही की गयी है। क्लाउद लेवी-स्ट्रास के संरचनावाद के मूल सिद्धान्त को आधार बनाकर बात करें तो पहली समानता तो इन तीनों शब्दों में एक खास तरह की एकरूपता है, जिसके मूल में निश्‍िचत तौर पर 'मंडल' शब्द है। पर इन तीनों के बीच एक अलग ही किस्म का संबंध है। जिस पर से पर्दा उठाने के लिए थोड़े विस्तार में जाने की जरूरत है।

1857 के सिपाही विद्रोह के कारण मिले झटके के बाद अंग्रेजों ने भारतीय सामंतवाद से एक खास तरह का समझौता कायम किया, जो आजादी के बाद भी भारतीय शासक वर्ग निभाता रहा। लेकिन आजादी के पहले कांग्रेस के मूल प्रस्तावों में शामिल रहे जमींदारी उन्मूलन के सिद्धान्त ने निश्चित तौर पर भारतीय सामंतवाद को डरा दिया था। जमींदारों के इसी भय ने द्विराष्‍ट्र के विखंडनवादी सिद्धान्त को मजबूती दी, जिसकी परिणति भारत विभाजन में हुई। उच्च जातियों ने विभाजन का फायदा जम कर उठाया। मुस्लिम जमींदारों द्वारा छोड़ी गयी ज़मीन, चल और अचल संपत्ति को हस्तगत करने में इन्होंने कोई देरी नहीं की। कुछ ज़मीनें पिछड़ी जातियों के भी हाथ लगी। आज़ादी के बाद भी शासक वर्ग में सामंतवाद के हावी रहने के कारण ज़मींदारी उन्मूलन की बात धरी की धरी रह गयी। सामंती वर्ग तब तक पूरी तरह संभल चुका था। विदेशों में पली-बढ़ी इनकी पीढ़ी तो पहले ही सचेत हो चुकी थी। इसने नये ज़माने के रंग-ढंग, देख-सुन-समझ लिया था। नेहरु की उद्योगपरस्त नीतियों ने भी सामंतवाद को सचेत करने में भूमिका निभायी। खेती से ज्यादा ध्यान सामंतवाद मुनाफा संस्कृति का हिस्सा बनने में देने लगा। पर तब तक बड़े सामंत और राजा-रजबाड़े ही इस दौड़ में शामिल थे। मंझोले और छोटे ज़मींदार अभी भी पुराने अंदाज़ में ही चल रहे थे। हालांकि इस बदलाव में छोटी-बड़ी काश्‍तकारी की उतनी भूमिका नहीं थी, जितनी उनकी शिक्षा और समझदारी की। पर आज़ादी के बाद कम्‍युनिस्ट पार्टियों के ज़मींदारी विरोधी और भूमि अधिग्रहण आंदोलनों और नक्सलबाड़ी ने इन पर जो गहरी चोट की, उसने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। सामंत वर्गों ने अपना सीधा नाता शहरों से जोड़ लिया। जहां पहले से या तो इनकी संतानें अच्छी नौकरियों में थीं या व्यवसाय को अपना चुकी थीं। यही वह समय था जब छोटी जोत वाली किसान जातियां जो ज्यादातर पिछड़े वर्गों से आती थीं, ने ताकत हासिल की। पहले तो उन्होंने बटाई पर इनकी ज़मीनें लीं और फिर हाड़-पसीने की कमाई से बचाये रुपयों से ज़मीनें खरीदनी शुरू कर दी। जब इन्हें आर्थिक आज़ादी हासिल हुई, तो असहनीय सामाजिक व्यवस्था के प्रति वर्षों से इनके मन में दबा गुस्सा बाहर आया और अपने को ताकतवर बनाने के लिए इन्होंने सारा ज़ोर सत्ता हासिल करने में लगा दिया। और यहीं से पिछड़ी और उच्च जातियों के आपसी टकराव का रास्ता साफ हो गया। क्योंकि सत्ता की चाभी से नये अवसरों की जो गंगा निकलती थी, वह उच्च जातियां किसी और को थमाने को तैयार नहीं थीं। पिछड़ों के लिए नौकरी में आरक्षण की मांग ने इस लड़ाई को हवा दी, जिससे मंडल और कमंडल के बीच संघर्ष उभर कर सतह पर आ गया। 1989 के चुनाव में जनता दल की जीत में पिछड़ों के उभार ने बड़ी भूमिका निभायी। 1990 तक कई राज्यों में पिछड़ी जाति के लोग सत्तासीन हो गये। इसके साथ ही पिछड़ी जातियों ने आरक्षण की जंग भी जीत ली। यहीं से उच्च जातियों को लगना शुरू हुआ कि उनका तिलिस्म अब टूट रहा है। सत्ता के साथ ही वे सारे संसाधन जिन पर अब तक सिर्फ इनका कब्‍ज़ा था, इनके हाथों से निकलने का खतरा पैदा हो गया।

यहीं से उन्होंने यह समझ लिया कि लोकतंत्र अब उनके काम का नहीं रह गया है। लोकतांत्रिक प्रणाली को कमजोर बनाये बिना अब इनका काम चलने वाला नहीं है। ऐसा सरकार की शक्तियों को कमज़ोर करके ही किया जा सकता है। जिसमें सार्वजनिक उपक्रमों को ख़त्म कर निजी उपक्रमों को बढ़ावा देना शामिल था। उनके विदेशी आका सोवियत संघ के विघटन के बाद से ही बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों के माध्यम से पूंजी की विश्‍व विजयी अभियान पर निकल चुके थे। अंतत: 1991 में भारतीय शासक वर्ग ने भूमंडलीकरण को अपना लिया। इससे इन्होंने एक तीर से कई निशाने साधे। एक तो आरक्षण से पिछड़ों को मिल सकने वाली सरकारी नौकरियों पर लगाम कस दी। क्योंकि सार्वजनिक उपक्रमों को एक-एक कर या तो बंद या बेच देने की योजना बनायी गयी। दूसरे यह कि कृषि के कारण पिछड़े वर्गों को मिल रहे लाभों से वंचित करने का मौका मिल गया। यह इस प्रकार संभव हुआ कि शासक वर्ग ने कृषि को अपनी प्राथमिकता सूची से ग़ायब कर दिया और कृषि पर मिलने वाली सब्सिडी को न्यूनतम कर दिया। (जबकि प्राइवेट सेक्टर को वो सारी सुविधाएं दी गयीं, सेज़ इसका सबसे बड़ा नमूना है)। इस प्रकार देश की रीढ़ कृषि अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया गया। देश भर में कृषि संकट की जो हाहाकार सुनाई पड़ रही है, इसकी नींव भारतीय शासक वर्ग ने 90 के दशक में ही तैयार कर दी थी।

भारतीय मध्य वर्ग, पूंजीपति वर्ग और अन्तराष्‍ट्रीय साम्राज्यवाद ने भारतीय समाज के भीतर के इस तनाव का जबर्दस्त फायदा उठाया। वे अपनी सारी नीतियां भारतीय शासक वर्ग से मनवाने में कामयाब रही। यह विडंबना ही कहा जाएगा कि इसमें पिछड़े वर्ग से आये नेताओं ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। बहुत हद तक तो निजी लाभ के लिए और कुछ इनको समझ पाने के अभाव के कारण। मुश्किल यह है कि हम लड़ाई लड़ने की बात तो करते हैं, पर हमेशा निशाना ग़लत लगाते हैं। कुछ तो मार्क्‍सवादी चेतना से वशीभूत अन्तरराष्‍ट्रवाद के कारण और कुछ सब कुछ समझते हुए भी। इसीलिए भारत में वर्ग और जाति के उत्स को जोड़ कर देखने की जरूरत है।

भारतीय कृषि संकट को दूर करने के लिए बाहरी ही नहीं, आन्तरिक दुश्‍मनों की पहचान भी उतनी ही जरूरी है।

मृत्युंजय प्रभाकर
(मृत्‍युंजय पटना के हमारे साथी रहे हैं। जेएनयू में कला-सौंदर्य की अपनी पटनिया समझदारी को एक बड़ा फलक दिया। इन दिनों चरखा फीचर एजेंसी से जुड़े हैं। वे बता रहे हैं कि खेती कैसे एक अच्छी-ख़ासी किसान आबादी को तबाह कर रही है, वे मर रहे हैं और प्रधानमंत्री विकास की लोरियां गाकर मुल्क के नागरिकों को सुला रहे हैं। इस बात की ख़ास तौर पर पड़ताल की गयी है कि कृषि संकट की असली जड़ें क्या हैं और किसानों को कमज़ोर करने की साज़ि‍श की शुरुआत दरअसल कब से होनी शुरू हुई।)

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Sunday, 27 May 2007

हम सब एक टाइम बम पर बैठे हुए हैं : अरुंधति राय

13 दिसंबर, 2001 को भारतीय संसद पर पांच शस्त्रधारी लोगों ने हमला किया. कुछ लोगों का कहना है कि ये छह थे. पांच साल बीत गये. हम अभी तक यह नहीं जानते कि आखिर ये हमलावर कौन थे. नागरिक समाज का कहना है कि पुलिस ने कानून की धज्जियां उड़ा दीं. झूठे प्रमाण इकट्ठे किये और गलत बयानबाजी की. अफजल गुरु के बयान को गैर जिम्मेवार टीवी चैनलों ने खूब प्रचारित किया. फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने अफजल गुरु के गुनाह स्वीकार करने की घटना को खारिज कर दिया, जिसे सभी गैर जिम्मेवार टीवी चैनलों ने खूब प्रचारित-प्रसारित किया था, जो पुलिस की विशेष शाखा ने उन्हें मुहैया करायी थी. इससे पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर एसएआर गिलानी को भी झूठी साजिश में फंसाया गया था, जिसकी वजह से वे फांसी के फंदे से बाल-बाल बचे. अरुंधति राय, समाजशास्त्री रजनी कोठारी सहित प्रसिद्ध नागरिकों द्वारा मृत्युदंड का विरोध भी किया गया था. गिलानी बरी हुए. अरुंधति रॉय कहती हैं कि आज तक उन पांच या छह हमलावरों के बारे में कोई नहीं जानता है. क्या यह सब अंदर की बात है? इस साक्षात्कार में अरुंधति राय से इसी सवाल का जवाब खोजने की कोशिश की गयी है. न तो कोई जानता है और न ही स्पष्ट रूप से सिद्ध कर सकता है, क्योंकि पुलिस, जांच एजेंसियां और मीडिया सब मिल कर इस पर प्रचार और झूठ का मुलम्मा चढ़ा रहे हैं. अब कसूरवार होने के सही सबूत न मिलने पर भी साजिश के तहत अफजल गुरु को फांसी की सजा सुना दी गयी है. न्यायालय में मुकदमे की जांच के समय उसकी ओर से कोई कानूनी प्रतिनिधि नहीं था. इसलिए मुकदमे की दोबारा न्यायिक जांच की मांग की जा रही है. तो दूसरी ओर भाजपा उसे फांसी दिलाने पर तुली हुई है. मुकदमे की कानूनी जांच किये बिना आप किसी को फांसी कैसे दे सकते हैं?अरुंधति राय ने 12 दिसंबर को दिल्ली में खचाखच भरे एक आडिटोरियम में पेंगुइन द्वारा प्रकाशित एक नयी किताब 13 दिसंबर : ए रीडर. द स्ट्रेंज केस आफ़ द अटैक आन द इंडिया पार्लियामेंट का विमोचन किया. इस पुस्तक में विभिन्न विद्वानों पत्रकारों और वकीलों द्वारा लिखे गये 15 निबंध हैं, जिन्होंने उपलब्ध तथ्यों के आधार पर संसद हमले के मुद्दे पर संदेहास्पद जांच और पक्षपातपूर्ण न्यायिक प्रक्रिया के खिलाफ गंभीर प्रश्न उठाये हैं. रीडर में अरुंधति राय द्वारा लिखा गया एक इंट्रोडक्शन है. लेखकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि संसद पर किये गये इस हमले से एक ओर पाकिस्तान से सैनिक मोरचाबंदी हुई वहीं उपमहाद्वीप में परमाणु युद्ध का खतरा हो गया. हजारों मासूमों की जानें गयीं और करोड़ों रुपये की बरबादी के बावजूद इस मामले की जांच की कोई आवश्यकता महसूस नहीं की गयी. राय ने 13 सवाल उठाये हैं जो अभी तक अनुत्तरित हैं. लेकिन सबसे बड़ा सवाल अब भी बाकी है कि क्या बिना किसी ठोस सबूत और कानूनी प्रतिनिधित्व के अफजल को फांसी दे दी जायेगी?क्या कट्टरवादी इसलामी आतंकवाद एक सच्चाई है या धोखा या फिर यह भारतीय व्यवस्था की प्रचार मशीनरी और जांच सूत्रों द्वारा बनायी गयी साजिश है?यह न तो पूरी तरह झूठ है और न ही पूरा सच. राबर्ट पेप ने अपनी पुस्तक डाइंग टू विन में बताया है कि कैसे आत्मघाती दस्ते नवउपनिवेशवाद से लड़ने में कारगर रहे हैं. जिसे हम इसलामी आतंकवाद या इसलामी कट्टरवाद जैसे खतरे के रूप में चिह्रित करते हैं, उसका मुक्ति संघर्षों में काफी बड़ा योगदान है. मुक्ति संघर्ष में लोगों को एक सूत्र में पिरोने के लिए धर्म का सहारा लेना कोई नयी बात नहीं है. कट्टरवाद का दूसरा पहलू यह है कि जब लोग खुद को एक विशेष वर्ग या धर्म से जुड़ा मानते हैं तो वे अपने में ही सिमट जाते हैं. इसका तीसरा जटिल रूप यह है कि इसलामी कट्टरवाद अब इस रूप में बदनाम हो गया है कि वे कब्जे के लिए लड़ रहे हैं. और इसलिए वे हमलावर हैं. शुरू में फ़लस्तीन में हमास के साथ हो चुका है, जिससे फ़लस्तीन मुक्ति मोरचा (पीएलओ) जैसा धर्म निरपेक्ष संगठन भी बदनाम हो गया. कश्मीर में भी यही सब हो रहा है. क्योंकि अगर वे प्रतिरोध को कुछ पागल, सनकी लोगों के रूप में जो दुनिया को ध्वस्त करने पर उतारू हैं, चित्रित कर दें तो वे युद्ध का अधिकतर हिस्सा वे जीत चुके होंगे. जो कोई भी कश्मीर में इसलामी कट्टरता की बात करता है उसे देखना चाहिए कि वहां से ज्यादा बुरका मुंबई या पुरानी दिल्ली में महिलाएं पहनती हैं. आप ग्रामीण बिहार की महिलाओं को कश्मीर की महिलाओं से ज्यादा शोषित पायेंगे. लेकिन जहां पुलिस ओर सैन्य बल जितने ही क्रूर होंगे जनता भी वैसी होगी.लश्कर-ए-तोइबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे इसलामी आतंकी संगठनों पर आपकी क्या राय है? मैं उनके बारे में ज्यादा नहीं जानती लेकिन इतना कह सकती हूं कि कश्मीर में इन्हें कोई आतंकी संगठन के रूप में नहीं मानता. ज्यादातर लोग इसे आजादी के संघर्ष के लिए जरूरी मानते हैं. उनके बारे में दिल्ली के लोगों की सोच और कश्मीर के लोगों की सोच में काफी अंतर है.अगर श्रीनगर में एक बम फटने से स्कूल जाते हुए बच्चे मर जाते हैं तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? बहुत भयानक. लेकिन मुझे मीडिया/प्रेस रिपोर्टों को पढ़/देख कर यह नहीं मालूम होगा कि यह सब कौन करता है. वे मिलिटेंट हो सकते हैं मगर समान रूप से वे सुरक्षा बल, पुलिस, कोई धोखेबाज या सरेंडर किया हुआ मिलिटेंट जो पुलिस के लिए काम कर रहा हो, भी हो सकता है. यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है. सच बताना लोगों के लिए बहुत कठिन है. शायद उनसे सच उगलवाया भी नहीं जा सकता. कश्मीर ऐसी घाटी है जहां सैनिक हैं, मिलिटेंट हैं, हथियार है, गोला-बारूद है, जासूस, दोतरफा, एजेंट खुफिया एजेंसी, एनजीओ और बेहिसाब पैसा है. कुछ-से-कुछ होता रहता है वहां. सेना वहां अनाथालय और सिलाई केंद्र चला रही है. टीवी चैनल केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय का है. ऐसे में यह बताना कठिन है कि कौन किसके लिए काम कर रहा है, कौन किसका इस्तेमाल कर रहा है. कभी-कभी लोग खुद भी यह नहीं जान पाते हैं कि वे किसके लिए काम कर रहे हैं या उन्हें किसने लगा रखा है.क्या आपको लगता है कि भारत में मुसलमानों को व्यवस्थित रूप से निशाना बनाया गया है?हां. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में भी तो अप्रत्यक्ष रूप से यही कहा गया है. (यह रिपोर्ट प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त समिति द्वारा तैयार की गयी है, जिसमें कहा गया है कि भारतीय मुसलमान देश का सबसे गरीब पिछड़ा, अशिक्षित और बदहाल समुदाय है, जिसे उच्च या मध्यमवर्गीय नौकरियों में प्रतिनिधित्व ही नहीं मिल पाया है.) गुजरात में जो हो रहा है, मानवता के खिलाफ अपराध है. भाजपा के नेतृत्व में 2002 में दक्षिणपंथी हिंदुओं द्वारा मुसलिम विरोधी नरसंहार में 2000 मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया गया. 1,50,000 को बेघर कर दिया गया. पुनर्वास के बजाय उन्हें पूरी तरह से उजाड़ दिया गया है और अब राज्य से भी बाहर भगाया जा रहा है. हमारी धर्मनिरपेक्ष सरकार भी चुप्पी लगाये हुए है, जिसमें वामपंथी भी शामिल हैं. 2002 की हिंसा तो सबने देखी, लेकिन यह अदृश्य फासीवादी हिंसा भी उतनी ही भयावह है. ऐसा लगता है कि मुसलमान के बारे में हम केवल यही बात करते हैं कि वह या तो पीडि़त है या आतंकवादी. मुझे लगता है कि हम सब एक टाइमबम के ऊपर बैठे हैं.क्या आपको लगता है कि 13 दिसंबर का हमला कोई साजिश का हिस्सा तो नहीं? यह इस पर निर्भर करता है कि अंदर क्या है और बाहर क्या है. मैं नहीं समझती कि हम यह कर सकते हैं. वास्तव में एक के ऊपर एक रखी परतों को खोल कर देखा जाये तो शुरू में ही सच्चाई साफ हो जाती है, जिसमें संसद, न्यायपालिका, मास मीडिया और जब निचली सतह पर कश्मीर में सुरक्षा तंत्र तक पहुंचते हैं तो एसटीएफ़, एसओजी आदि जासूसों, मुखबिरों, सरेंडर मिलिटेंटों आदि के साथ आपस में घुलमिल जाते हैं. ससंद पर हमले के मामले में भी यही खुलासा होना बाकी है. हम यह नहीं जानते हैं कि इसके पीछे कौन लोग थे. बस इतना जानते हैं कि अरेस्ट मेमो से छड़्छाड़ की गयी, जो भी कार्रवाई हुई, उसमें सबूतों और गवाहों को झूठ और दबाव का जामा पहनाया गया था और स्वीकारोक्तियां यातना के भीतर से निकलीं. क्यों? आप कोई रॉकेट वैज्ञानिक तो नहीं है कि अनुमान लगा लेंगे कि जब कोई झूठ बोलता है तो इसका मतलब है कि वह कुछ छिपा रहा है. वह क्या है है, यह हमें जानना है और इसे जानने का मुझे पूरा हक है.


अरूंधति रॉय से अमित सेनगुप्त की बातचीत

अनुवाद : जितेंद्र कुमार

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