रामेश्वरम को नाम कमाने और बनाने की फ़िक्र कभी नहीं हुई
रामेश्वरम सात जून को ख़ामोशी से चले गए. कहीं कोई चर्चा नहीं हुई.
छोटे-बड़े ख़बरिया चैनलों में तो ख़बर आने का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता. देश के कथित बड़े-बड़े अख़बारों के निधन कॉलम में भी रामेश्वरम को जगह नहीं मिली.
ठीक भी है. रामेश्वरम का जाना कोई ख़बर भी कैसे हो सकती है! रामेश्वरम कोई बड़े तांत्रिक नहीं थे, चुंबन-प्रेमी पॉप गायक भी नहीं. जाने क्यों राजनीतिज्ञ होने की भी उन्होंने कभी कोई कोशिश नहीं की.
आश्चर्य और दुखद यह लगता है कि उनके कई क़रीबी लोगों को भी रामेश्वरम के चले जाने का पता नहीं चला.
उदाहरण के तौर पर 'बंधुवा मुक्ति मोर्चा' के राष्ट्रीय अध्यक्ष स्वामी अग्निवेश को रामेश्वरम के निधन के हफ्ते भर बाद भी कोई ख़बर नहीं मिली थी. और उन्हें पता तब चला जब रामेश्वरम से जुड़ी उनकी यादें पूछने के लिए उन्हें फ़ोन किया.
रामेश्वरम बिहार के सबसे पिछड़े पलामू में पैदा हुए और उसी पलामू में उन्होंने अपनी आख़री साँसें लीं. उनके पैदा होने की तारीख़ का तो पता नहीं लेकिन 70-72 साल के रामेश्वरम से जब पिछले महीने जब मेरी आख़री मुलाकात हुई थी तो मैंने हमेशा की तरह उन्हें जवान पाया. बंधुआ मज़दूरों और आदिवासियों की समस्याओं से घिरे और किसी 18 साल के बांके जवान जैसी खरखराहट भरी आवाज़. वह शब्दों को चबाकर किसी बड़े अधिकारी को फ़ोन पर फटकारते हुए कह रहे थे, “ आप मुझे धमकाने की कोशिश न करें. मैं आख़री दम तक लड़ूंगा.”
सुप्रसिद्ध कथाकार महाश्वेता देवी की जाने कितनी कहानियों के नायक रामेश्वरम सचमुच जीवन भर लड़ते रहे. उस पूरी व्यवस्था से, जिसे वह बेहतर करना चाहते थे.
ठेठ बिहारी, नाम रामेश्वरम
रमेश कुमार गुप्ता को अपनी स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई खत्म करते तक समझ में आ गया था कि उनका जातिसूचक नाम उनके आचरण से मेल नहीं खाता.
पलामू बंधुआ मज़दूर मुक्ति की पहली चौपाल
रामेश्वरम ठहाके लगाते हुए बताते थे कि किस तरह उन्हें लगा कि उत्तर भारत का दक्षिण से कोई रिश्ता होना चाहिए और उन्हें 'बनिया' घोषित करने वाला अपना नाम तो खैर बदलना ही था, सो रमेश कुमार गुप्ता से वे रामेश्वरम हो गए.
बेटी पैदा हुई तो सिक्खों जैसा नाम रखा असुप्रित, फिर बड़े बेटे का हिंदू नाम आशुतोष, दूसरे बेटे का ईसाइयों की परम्परा जैसा नाम इषुमान. वे अपनी पत्नी उर्मिला जी की ओर मुस्कुराते हुए देखते और कहते, "सोचता था एक बेटा और होता तो नाम रखता ईसराइल!"
रामेश्वरम के बरसों पुराने घर का नाम गुप्ता कुटीर था, जिस पर कुछ सालों बाद क्रांति कुटीर की तख़्ती लग गई. बाद में यह क्रांति कुटीर हज़ारों ऐतिहासिक बैठकों का गवाह बना. देश-विदेश से आने वाले लेखको, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का हमेशा वहां जमावड़ा बना रहता.
पत्रकारिता से आंदोलन तक
18-20 साल की उम्र में रामेश्वरम ने पत्रकारिता शुरु की और पलामू से प्रकाशित एक अख़बार का संपादन का काम उन्होंने संभाला. बाद में कई पत्र-पत्रिकाओं के वे संपादक रहे. कविताएं और कहानियां भी लिखीं. सैकड़ों की संख्या में शोध आलेख रामेश्वरम की पूंजी थे.
लेकिन रामेश्वरम केवल पत्रकार भर नहीं होना चाहते थे. पलामू में सदियों से चल रहा शोषण उन्हें उद्वेलित करता था.
महाश्वेता देवी रामेश्वरम की लड़ाई की अभिन्न साथी रहीं
भारत में सर्वाधिक बंधुआ मजदूरों के कारण पलामू बदनाम रहा है. कुल 51.7 फीसदी आबादी मज़दूरों की रही है. आँकड़े बताते हैं कि 1920 में यहां 63 हज़ार बंधुआ मज़दूर थे. आज़ादी के बाद भी यह आंकड़े लगभग वैसे ही रहे.
रामेश्वरम ने इस बंधुआ मज़दूरी के ख़िलाफ आंदोलन छेड़ा. गाँव-गाँव में अकेले घूमते रहे और पीढ़ियों से बंधक रहे मजदूरों को छुड़ाने का काम शुरु किया.
1973 में पलामू के बंधुआ मज़दूरों का एक सर्वेक्षण हुआ और जब उनकी सूची छपी तो देश भर में उसकी चर्चा हुई. संसद में सवाल उठे. उसके बाद इसी पहल पर 1975 में बंधित मज़दूरी प्रथा उन्मूलन अध्यादेश देश भर में लागू हुआ.
700 गांवों के ज़मींदार मौआर जगदिश्वरजीत सिंह के बारे में यह प्रचलित था कि अपने खिलाफ़ आवाज उठाने वाले बंधुआ मज़दूरों को वे अपने पालतू बाघों के सामने डाल दिया करते थे. रामेश्वरम की पहल पर जब “मैन इटर ऑफ मनातू” नामक फ़िल्म बनी तो जैसे तूफान आ गया. मौआर जगदिश्वरजीत सिंह पर देश में सबसे अधिक 96 बंधुआ मज़दूर रखने का मुक़दमा चला.
बंधुआ मुक्ति
रामेश्वरम ने लेखिका महाश्वेता देवी को पलामू बुलाया और एक छोटे से गाँव सेमरा में बंधुआ मुक्ति आंदोलन को एक संगठन की शक्ल देते हुए, “पलामू बंधुआ मुक्ति मोर्चा ” की स्थापना की. उसी साल सात दिसंबर को स्वामी अग्निवेश ने महाश्वेता देवी और रामेश्वरम के साथ मिल कर दिल्ली में पहली बंधुआ मुक्ति चौपाल की.
रामेश्वरम ने सात पीढ़ियों से बंधुआ मज़दूर रहे मुगल भुइयां को इस चौपाल की रैली का नेतृत्व सौंपा.आठ दिसंबर को टाइम्स ऑफ इंडिया में लीड के साथ मुगल भुइयां की तस्वीर छपी.
19 जुलाई 1981 के “रविवार ” में महाश्वेता देवी का एक संस्मरण उलटते हुए नज़रें ठहर जाती हैं, “इस ग़ज़ब के आदमी का एक अपना छापाखाना है, बाहर के कमरे में एक छोटी सी कामयाब चीज़. वह फ्रीलांस पत्रकार है और एक निजी साप्ताहिक समाचार पत्र शुरु करने का ख्वाब देखता है...वह कई सौ मील पैदल चल कर बंधुआ मज़दूरों के गांवों में जाता है...”
महाश्वेता देवी ने जाने कितनी कहानियाँ रामेश्वरम को केंद्र में रख कर लिखी हैं. उनके एक उपन्यास के मुख्य पात्र तो रामेश्वरम ही हैं.
बंधुवा मज़दूरों के प्रति वे जितने संवेदनशील थे, वह दुर्लभ है. उन्होंने ही सबसे पहले हमें पलामू बुलाया और बंधुवा मज़दूरों की समस्याओं से रुबरु करवाया. वे आज के एनजीओ की तरह नहीं थे, जिन्होंने बंधुवा मज़दूरों के बजाय अपना पुनर्वास कर लिया
स्वामी अग्निवेश
खरी-खरी बात करने वाले रामेश्वरम की एक पुरानी चिट्ठी मेरे पास रखी है, “गाँव-गाँव में मुक्त बंधुआ मज़दूरों को हमने 11 महीने का प्रशिक्षण दिया है. वे बोलते नहीं थे, बोलने लगे हैं. पहले बहुत डरते थे, अब डर कम हुआ है, साहस भी बढ़ा है. पहले नहीं आते थे, अब आने लगे हैं..."
उनके आंदोलन के साथी रहे स्वामी अग्निवेश कहते हैं, “ मैं उनके परिवार में रहा हूँ. जब दिल्ली में हमने बंधुवा मुक्ति मोर्चा की स्थापना की, उससे पहले से वे बंधुवा लोगों के लिए काम कर रहे थे. बंधुवा मज़दूरों के प्रति वे जितने संवेदनशील थे, वह दुर्लभ है. उन्होंने ही सबसे पहले हमें पलामू बुलाया और बंधुवा मज़दूरों की समस्याओं से रुबरु करवाया. वे आज के एनजीओ की तरह नहीं थे, जिन्होंने बंधुवा मज़दूरों के बजाय अपना पुनर्वास कर लिया.”
रामेश्वरम से जब भी आप मिलने जाते, दो-चार नए आदिवासी चेहरे हमेशा उनके आस पास होते. बिरजू से लेकर रघुनी तक. लेस्लीगंज के जंगलों में रहने वाली शांति किंडो तो उनकी घर की सदस्य ही बन कर रह गई. इन सबके लिए वे “पिताजी” थे.
अब इन सैकड़ो लोगों का कोई पिता नहीं रहा.
आलोक प्रकाश पुतुल
courtsey BBC Hindi
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Friday, 22 June 2007
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