Friday 11 July, 2008

Wednesday 9 July, 2008

और लेफ्ट एक बार फिर ऐतिहासिक भूल कर बैठा

और लेफ्ट एक बार फिर ऐतिहासिक भूल कर बैठा

यह हमारे देश और देश की जनता की बिडम्बना ही है की अपने को जनता का प्रतिनिधि पार्टी कहने वाली लेफ्ट पार्टियाँ हमेशा से ऐतिहासिक भूलें करती आयीं हैं. उसकी ईमानदारी पर अविश्वास इसलिए भी नहीं कर सकते की वोह इसे तहे-दिल से स्वीकार भी करती आई है. कुछ-कुछ इस शक्ल में की 'लो जी फिर से एक ऐतिहासिक भूल हो गई. अब क्या करें. हम करना तो कुछ ऐसा चाहते थे. पर हो कुछ और ही गया.' इस बार भी लेफ्ट से ऐतिहासिक भूल हो ही गई. आज नहीं (क्यूंकि बैठकों में काफी वक्त लगता है) पर कल जरूर लेफ्ट वाले यह सच सबके सामने स्वीकार करेंगे की 'लो जी एक और भूल हो गई'. पर उसमें अभी काफी समय है.

आख़िर बेचारे वह भी क्या करें. मार्क्स-लेनिन ने इतना लिख डाला है की पढ़ते-पढ़ते तरुनाई में ही ऑंखें खरब कर लेते हैं. बाकि पता नही कितने विचारक हो चुके हैं. उनसे भी निपटना जरूरी होता है. आख़िर यही पढ़ाई तो उनकी 'पूंजी' है जिसके बल पर पोलिट ब्यूरो में बैठकर राजनीति करने का हक उन्हें मिलता है. वरना अगर जनता के बीच रहकर पैर घिस रहे होते तो बाटा की हजारों चप्लें घिसने के बाद भी शायद ही डिस्ट्रिक्ट कमिटी का चेहरा देख पाते. अब जब आँखों से साफ़ दिखाई ही नहीं दे तो गलती होनी तो स्वाभाविक ही है. अभी कुछ दिनों पहले ही एक पत्रकार बंधू कह रहे थे, 'परिवर्तन इतनी तेजी से हो रहा है की आपकी ऑंखें चुन्धियाँ जाएँगी. समय बिल्कुल राजधानी और शताब्दी एक्सप्रेस की तरह भाग रहा है. प्लेटफार्म पर खड़े किसी व्यक्ति को सिर्फ़ इतना ही दीखता है की कोई ट्रेन कुछ गुजर गई. उसपर लिखी इबारत नहीं दिखती.' यहाँ तो पहले से ही आँखों में मोतिअबिंद हुआ पड़ा है. ऐसे में कुछ खाक दिखेगा.

पर उनकी ईमानदारी पर आप सक नहीं कर सकते. देखियेगा कोई पांच साल बाद एक बयान आयेगा (आदत के मुताबिक) की 'लो जी एक और भूल हो गई'. कारण मैंने पहले की बताया है, आखिर लोकल कमिटियों से लेकर पोलित ब्यूरो तक कोई निर्णय लेने में इतना वक्त तो लगेगा ही. उसपर पार्टी कोई एक राज्य में थोड़े न है. तीन राज्यों में तो सरकार चला रहें हैं. उसपर थोड़ा बहुत आधार कुछ और राज्यों में भी है. कहीं आधार नहीं भी है तो क्या पार्टी तो है. वहां की भी राय सुनी जानी जरूरी है. फिर पार्टी के भीतर वाद-विवाद और बहस-मुबाहिसा का वातावरण बरक़रार रखने के लिए अलग-अलग धडे भी तो हैं. आखिर इन सबको समेटने में वक्त तो लगता ही है.

खैर, तो बात हो रही थी 'ऐतिहासिक भूल की'. लेफ्ट वाले यह समझकर सरकार को समर्थन दिए जा रहे थे की सरकार कोई भी जन-विरोधी कदम नहीं उठा रही है. मंहगाई का क्या. गलोब्लैजेशन का ज़माना है. मंहगाई भी आखिरकार ग्लोबल फेनोमेनों है. कब तक रोक पायेगी सरकार. पेट्रोल-डीज़ल का दम भी बढेगा. ग्लोबल वर्मिंग के ज़माने में फल-सब्जिओं और खाद्यान के दामों में तो आग लगेगी ही. कुछ भी है एक सेकुलर सरकार तो है. और इसे साम्राज्वाद विरोधी भी बनाकर ही दम लेंगे. मनमोहन और चिदम्बरम पहले भले ही वर्ल्ड बैंक की घुलामी बजा चुके हों. अब ऐसा कभी नहीं करने देंगे. उन्हें भी थोड़ा ह्यूमन टच भर देने की जरूरत है. वे ख़ुद ही समझ जायेंगे. कुछ ऐसा ही मुगालता पले बैठे थे हमारे लेफ्ट बंधू. कितने भोले हैं हमारे कर्णधार. इतने भोलेपन से पॉलिटिक्स करते हैं जैसे कोई बच्चा अपनी माँ के साथ पॉलिटिक्स करता है. चॉकलेट नहीं मिले तो रोने लगता है. माँ भी उसकी हर अदा जानती है. प्यार से झिड़क देती है. इतने भोलेपन पर ही शायद विनोद कुमार शुक्ल ने लिखा है: 'इतने भोले मत बन जन साथी, जैसे होते सर्कस के हाथी'. बेचारों को बिल्कुल नचा कर छोड़ दिया. चार साल तक अपना मतलब भी साधा और फ़िर ठेंगा भी दिखा दिया. साम्रार्ज्वादी आस्तीन के साँपों को तो डसना ही आता है. डंस लिया आखिरकार. पर लेफ्ट वाले बेचारे इसमे क्या करें. उन्होंने तो जी भरके कोशिश की इनका हृदय परिवर्तन हो जाए. नहीं हो सका तो समर्थन वापस भी ले ली. इससे ज्यादा क्या कर सकते थे.

अब अगर यह न्यूक्लियर डील हो जाती है. तो लेफ्ट की कोई जिम्मेदारी नही है. वो तो सरकार को अब समर्थन नहीं कर रहे. समाजवादी वाले इनके मुंहबोले भाई लोग कर रहे हैं. लालू-मुलायम को कितना चाहते थे बेचारे. क्या-क्या नहीं किया इनके लिए. दुनिया भर की तोहमतें लीं. फिर भी वे धोका देकर कांग्रेस के खेमे में चले गए. और शुक्र है की अभी तक कांग्रेस के खेमें में है. वह भी लेफ्ट की वजह से, नहीं तो बीजेपी के खेमें में चले जाते तो क्या कर लेते. लेफ्ट का पढाया पाठ की साम्प्रयादिकता बहुत बड़ा खतरा है, उन्हें याद रह गया है. आखिर सब कुछ भूलने में वक्त तो लगता ही है. वरना हो सकता है वह सीधे बीजेपी के खेमे में ही चले जाते. आख़िर अमर सिंह ने तो कह ही दिया, सुरजीत साहब की दिल्ली इच्छा थी की वह कांग्रेस के नजदीक आ जायें सो वो आ गए. कुछ अलग थोड़े ही कर रहे हैं. सुर्जितवाद को ही अपना रहे हैं.

यह भी कम बड़ी विडम्बना नहीं है की लेफ्ट बंधू जिसे पानी पी पी के कोसते हैं वह होकर ही रहता है. बीजेपी को इतना कोसा की उनकी सरकार तक बन गई. साम्प्रय्दिकता के नम पर क्या क्या और किस्से समझौता नहीं किया. पर जितना उसे कमजोर करने की कोशिश करते हैं. मजबूत होती जाती है. अभी देखिये. कांग्रेस को समर्थन दिया था की बीजेपी शाषण से दूर रहे पर उसके कदम १० जनपथ की तरफ बढ़ते ही जा रहे है. अब डील के पीछे पड़े थे वह भी अब होकर ही रहेगा. लेफ्ट की छवि भी कुछ उलटी बन गई है. अब तो खाए पिए लोग यह सोचने लगे हैं की लेफ्ट विरोध कर रहें हैं तो जरूर वह देश के हित में होगा. भाई -बंधुओं को इसपर भी जरा विचार करना होगा.

कितने मौके आए जब सरकार गिरा सकते थे पर नहीं बीजेपी आ जाएगा का भय दिखाते रहे. कुछ कुछ उस आदमी की तरह जो झूट मूठ हॉल मचाता था की शेर आया. लोग दौड़-दौड़कर परेशान. औ रजब शेर आया तो कोई भी साथ नही था. यही हाल हो गया बेचारों का. तीसरा मोर्चा का बनता पलीता फ़िर लुढ़क गया. और बेचारे अकेले खड़े हैं. कुछ कुछ उन्ही अभिशप्त आत्मायों की तरह जो अकेले रहने को अभिशप्त हैं.

हो सकता है पाँच साल वाद वाले बयान में यह भी आए, की हमने सरकार को समर्थन देना ही नहीं था. यह भी एक ऐतिहासिक भूल थी. पर इसकी सम्भावना कम है. पर कहने वाले तो कहेंगे ही की यूपीऐ सरकार को समर्थन देना भूल थी. पर ऐसा नक्सल वाले कहते हैं. या बीजेपी वाले. यह कहकर दरकिनार कर दिया जाएगा. उन्हें यह बात भी स्वीकार करने में हिचक होगी की सरकार से थोड़ा पहले समर्थन वापस ले लेते तो शायद न सरकार बच पाती न ही डील सम्भव होता. पर बेचारे क्या करते . मनमोहन ने उड़ने के बाद बोला की जा रहे हैं डील करने. लेफ्ट वाले तो समझ रहे थे. जायेंगे मौज-मस्ती कर के वापस आ जायेंगे. ऐसे सम्मिट तो होते ही रहते हैं.

पर कहीं न कहीं किसी न किसी लोकल कमिटी की फाइल में जरूर दबा रह जाएगा की 'देर हो गई थी'.

मृत्युंजय प्रभाकर