Monday, 28 May 2007

कौन मार रहा है किसानों को

हम एक ऐसे देश के नागरिक हैं, जहां चारों ओर त्राहिमाम है और देश का शासक वर्ग रोम के तानाशाह नीरो की तरह जीडीपी विकास दर की मधुर धुन बजा रहा है। शासक वर्ग की खाल इतनी मोटी हो चुकी है कि इन पर किसी भी चीज का असर नहीं होता। एक तरफ देश का हर छोटा-बड़ा राजनेता करोड़ों के हेर-फेर का आरोपी या दोषी है, हमारे देश के उद्यमी अरबपतियों की सूची में जापान के उद्यमियों को पीछे छोड़ चुके हैं, वहीं दूसरी तरफ देश का बहुसंख्यक हिस्सा भुखमरी के कगार पर है। अकारण नहीं है कि इस साल यू-एन-डी-पी द्वारा जारी किये गये मानव विकास सूचकांक में भारत का स्थान 126 वां है। किसानों द्वारा आत्महत्या की खबरें अब अखबारों में जगह नहीं पातीं, क्योंकि यह रोज़ की बात हो चुकी है और ब्रेकिंग न्यूज के इस ज़माने में किसी को भी चौंकाने वाली खबर नहीं रह गयी है। देश का प्रधानमंत्री ऐसे ही एक क्षेत्र में जाकर कुछ राहत पैकेज की घोषणा कर आता है और अपने कर्तव्य की इतिश्री मान कर बैठ जाता है। जबकि राहत पैकेज के उसके एलान के बाद उसी इलाक़े में किसानों की आत्महत्या की दर और भी बढ़ जाती है। देश के बाकी हिस्सों में जो हो रहा है, अगर उसे भी शामिल कर लें, तो इस देश को आत्महंता देश घोषित करने की नौबत आ जाएगी। याद करें यह वही देश है, जहां एक समय किसान इतने आत्मनिर्भर थे कि कहावत प्रचलित थी, कोऊ नृप हो हमें का हानी।

आश्‍चर्य यह है कि आंकड़ों में हर साल गरीबी घटने की बात बतायी जाती है। अभी हाल में आयी एक रिपोर्ट में बड़े फख्र के साथ यह दिखलाया गया कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या घट कर मात्र तीस करोड़ रह गयी है। पर गरीबी रेखा से पार पाने वाले और इसके नीचे रह जाने वाले लोगों की आय का आंकड़ा देखें, तो आप अपने रहनुमाओं की बाजीगरी देख कर हैरान रह जाएंगे। राजधानी दिल्ली में जो परिवार रोज 14 रूपये से अधिक खर्च करता है, उसे गरीबी रेखा से ऊपर माना गया है। जितने रुपयों में दिल्ली जैसे शहर में एक व्यक्ति का नाश्‍ता भी नहीं आता, उतना खर्च एक पूरे परिवार के लिए कैसे पूरा हो सकता है, यह तो बस आंकड़ों के बाजीगर ही समझ सकते हैं। यही हाल अन्य राज्यों का भी है। कुछ महीने पहले के एक सर्वे में यह तथ्य सामने आया था कि देश के 25 करोड़ परिवारों की रोज की आमदनी 12 रूपये से भी कम है। उस पर मुश्किल यह है कि ये सारे आंकड़े बाजीगरों के ही हैं।

सवाल उठता है यह सब क्यों कर घटित हो रहा है। सवाल यह भी है कि अगर भूमंडलीकरण इतना ही सर्वनाशी है, तो फिर शासक वर्ग इसके पीछे क्यों पड़ा है। इसका सीधा सा अर्थ है कि देश का शासक वर्ग और इसकी जमात इन परिवर्तनों से खुश है। और इसका सीधा असर साफ-साफ दिखता भी है। जो शहरी मध्य वर्ग कल तक 15-20 हजार की नौकरी को बड़ी उपलब्धि मानता था, आज वह लाखों में खेल रहा है। भले ही आबादी के हिसाब से यह तबका छोटा हो, पर इसने शहरी अर्थतंत्र को एक नयी गति दी है। घर-घर तक पसरता बाजार और मॉल इसकी पहचान बन चुके हैं। जबकि दूसरी तरफ किसान आत्महत्या को विवश और लाचार हैं। पर क्या विकास की इस गुलाबी तस्वीर और देश के बहुसंख्यक लोगों की दुश्‍वारी के बीच कोई रिश्‍ता हो सकता है? ऐसा होना तो नहीं चाहिए, पर दुर्भाग्य से ऐसा ही है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ऐसे ही विराधाभासों पर टिकी होती है।

भारत में इस खास तरह के पूंजीवादी संक्रमण पर बात करना चाहें, तो हमें इसकी पृष्‍ठभूमि में झांकने की जरूरत महसूस होगी। भूमंडलीकरण का दौर हमारे देश में 1990 के समय परवान चढ़ी। यह वही दौर था जब देश में मंडल और कमंडल की राजनीति भी उफान पर थी। भारतीय इतिहास को पूरी तरह बदल देनेवाली इन तीन परिघटनाओं पर अलग-अलग काफी बात हो चुकी है। कुछ लोगों ने मंडल और कमंडल आंदोलन को आपस में जोड़ कर देखने की कोशिश भी की है। पर 'मंडल', 'कमंडल' और 'भूमंडलीकरण' को जोड़कर देखने की कोशिश शायद ही की गयी है। क्लाउद लेवी-स्ट्रास के संरचनावाद के मूल सिद्धान्त को आधार बनाकर बात करें तो पहली समानता तो इन तीनों शब्दों में एक खास तरह की एकरूपता है, जिसके मूल में निश्‍िचत तौर पर 'मंडल' शब्द है। पर इन तीनों के बीच एक अलग ही किस्म का संबंध है। जिस पर से पर्दा उठाने के लिए थोड़े विस्तार में जाने की जरूरत है।

1857 के सिपाही विद्रोह के कारण मिले झटके के बाद अंग्रेजों ने भारतीय सामंतवाद से एक खास तरह का समझौता कायम किया, जो आजादी के बाद भी भारतीय शासक वर्ग निभाता रहा। लेकिन आजादी के पहले कांग्रेस के मूल प्रस्तावों में शामिल रहे जमींदारी उन्मूलन के सिद्धान्त ने निश्चित तौर पर भारतीय सामंतवाद को डरा दिया था। जमींदारों के इसी भय ने द्विराष्‍ट्र के विखंडनवादी सिद्धान्त को मजबूती दी, जिसकी परिणति भारत विभाजन में हुई। उच्च जातियों ने विभाजन का फायदा जम कर उठाया। मुस्लिम जमींदारों द्वारा छोड़ी गयी ज़मीन, चल और अचल संपत्ति को हस्तगत करने में इन्होंने कोई देरी नहीं की। कुछ ज़मीनें पिछड़ी जातियों के भी हाथ लगी। आज़ादी के बाद भी शासक वर्ग में सामंतवाद के हावी रहने के कारण ज़मींदारी उन्मूलन की बात धरी की धरी रह गयी। सामंती वर्ग तब तक पूरी तरह संभल चुका था। विदेशों में पली-बढ़ी इनकी पीढ़ी तो पहले ही सचेत हो चुकी थी। इसने नये ज़माने के रंग-ढंग, देख-सुन-समझ लिया था। नेहरु की उद्योगपरस्त नीतियों ने भी सामंतवाद को सचेत करने में भूमिका निभायी। खेती से ज्यादा ध्यान सामंतवाद मुनाफा संस्कृति का हिस्सा बनने में देने लगा। पर तब तक बड़े सामंत और राजा-रजबाड़े ही इस दौड़ में शामिल थे। मंझोले और छोटे ज़मींदार अभी भी पुराने अंदाज़ में ही चल रहे थे। हालांकि इस बदलाव में छोटी-बड़ी काश्‍तकारी की उतनी भूमिका नहीं थी, जितनी उनकी शिक्षा और समझदारी की। पर आज़ादी के बाद कम्‍युनिस्ट पार्टियों के ज़मींदारी विरोधी और भूमि अधिग्रहण आंदोलनों और नक्सलबाड़ी ने इन पर जो गहरी चोट की, उसने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। सामंत वर्गों ने अपना सीधा नाता शहरों से जोड़ लिया। जहां पहले से या तो इनकी संतानें अच्छी नौकरियों में थीं या व्यवसाय को अपना चुकी थीं। यही वह समय था जब छोटी जोत वाली किसान जातियां जो ज्यादातर पिछड़े वर्गों से आती थीं, ने ताकत हासिल की। पहले तो उन्होंने बटाई पर इनकी ज़मीनें लीं और फिर हाड़-पसीने की कमाई से बचाये रुपयों से ज़मीनें खरीदनी शुरू कर दी। जब इन्हें आर्थिक आज़ादी हासिल हुई, तो असहनीय सामाजिक व्यवस्था के प्रति वर्षों से इनके मन में दबा गुस्सा बाहर आया और अपने को ताकतवर बनाने के लिए इन्होंने सारा ज़ोर सत्ता हासिल करने में लगा दिया। और यहीं से पिछड़ी और उच्च जातियों के आपसी टकराव का रास्ता साफ हो गया। क्योंकि सत्ता की चाभी से नये अवसरों की जो गंगा निकलती थी, वह उच्च जातियां किसी और को थमाने को तैयार नहीं थीं। पिछड़ों के लिए नौकरी में आरक्षण की मांग ने इस लड़ाई को हवा दी, जिससे मंडल और कमंडल के बीच संघर्ष उभर कर सतह पर आ गया। 1989 के चुनाव में जनता दल की जीत में पिछड़ों के उभार ने बड़ी भूमिका निभायी। 1990 तक कई राज्यों में पिछड़ी जाति के लोग सत्तासीन हो गये। इसके साथ ही पिछड़ी जातियों ने आरक्षण की जंग भी जीत ली। यहीं से उच्च जातियों को लगना शुरू हुआ कि उनका तिलिस्म अब टूट रहा है। सत्ता के साथ ही वे सारे संसाधन जिन पर अब तक सिर्फ इनका कब्‍ज़ा था, इनके हाथों से निकलने का खतरा पैदा हो गया।

यहीं से उन्होंने यह समझ लिया कि लोकतंत्र अब उनके काम का नहीं रह गया है। लोकतांत्रिक प्रणाली को कमजोर बनाये बिना अब इनका काम चलने वाला नहीं है। ऐसा सरकार की शक्तियों को कमज़ोर करके ही किया जा सकता है। जिसमें सार्वजनिक उपक्रमों को ख़त्म कर निजी उपक्रमों को बढ़ावा देना शामिल था। उनके विदेशी आका सोवियत संघ के विघटन के बाद से ही बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों के माध्यम से पूंजी की विश्‍व विजयी अभियान पर निकल चुके थे। अंतत: 1991 में भारतीय शासक वर्ग ने भूमंडलीकरण को अपना लिया। इससे इन्होंने एक तीर से कई निशाने साधे। एक तो आरक्षण से पिछड़ों को मिल सकने वाली सरकारी नौकरियों पर लगाम कस दी। क्योंकि सार्वजनिक उपक्रमों को एक-एक कर या तो बंद या बेच देने की योजना बनायी गयी। दूसरे यह कि कृषि के कारण पिछड़े वर्गों को मिल रहे लाभों से वंचित करने का मौका मिल गया। यह इस प्रकार संभव हुआ कि शासक वर्ग ने कृषि को अपनी प्राथमिकता सूची से ग़ायब कर दिया और कृषि पर मिलने वाली सब्सिडी को न्यूनतम कर दिया। (जबकि प्राइवेट सेक्टर को वो सारी सुविधाएं दी गयीं, सेज़ इसका सबसे बड़ा नमूना है)। इस प्रकार देश की रीढ़ कृषि अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया गया। देश भर में कृषि संकट की जो हाहाकार सुनाई पड़ रही है, इसकी नींव भारतीय शासक वर्ग ने 90 के दशक में ही तैयार कर दी थी।

भारतीय मध्य वर्ग, पूंजीपति वर्ग और अन्तराष्‍ट्रीय साम्राज्यवाद ने भारतीय समाज के भीतर के इस तनाव का जबर्दस्त फायदा उठाया। वे अपनी सारी नीतियां भारतीय शासक वर्ग से मनवाने में कामयाब रही। यह विडंबना ही कहा जाएगा कि इसमें पिछड़े वर्ग से आये नेताओं ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। बहुत हद तक तो निजी लाभ के लिए और कुछ इनको समझ पाने के अभाव के कारण। मुश्किल यह है कि हम लड़ाई लड़ने की बात तो करते हैं, पर हमेशा निशाना ग़लत लगाते हैं। कुछ तो मार्क्‍सवादी चेतना से वशीभूत अन्तरराष्‍ट्रवाद के कारण और कुछ सब कुछ समझते हुए भी। इसीलिए भारत में वर्ग और जाति के उत्स को जोड़ कर देखने की जरूरत है।

भारतीय कृषि संकट को दूर करने के लिए बाहरी ही नहीं, आन्तरिक दुश्‍मनों की पहचान भी उतनी ही जरूरी है।

मृत्युंजय प्रभाकर
(मृत्‍युंजय पटना के हमारे साथी रहे हैं। जेएनयू में कला-सौंदर्य की अपनी पटनिया समझदारी को एक बड़ा फलक दिया। इन दिनों चरखा फीचर एजेंसी से जुड़े हैं। वे बता रहे हैं कि खेती कैसे एक अच्छी-ख़ासी किसान आबादी को तबाह कर रही है, वे मर रहे हैं और प्रधानमंत्री विकास की लोरियां गाकर मुल्क के नागरिकों को सुला रहे हैं। इस बात की ख़ास तौर पर पड़ताल की गयी है कि कृषि संकट की असली जड़ें क्या हैं और किसानों को कमज़ोर करने की साज़ि‍श की शुरुआत दरअसल कब से होनी शुरू हुई।)

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