13 दिसंबर, 2001 को भारतीय संसद पर पांच शस्त्रधारी लोगों ने हमला किया. कुछ लोगों का कहना है कि ये छह थे. पांच साल बीत गये. हम अभी तक यह नहीं जानते कि आखिर ये हमलावर कौन थे. नागरिक समाज का कहना है कि पुलिस ने कानून की धज्जियां उड़ा दीं. झूठे प्रमाण इकट्ठे किये और गलत बयानबाजी की. अफजल गुरु के बयान को गैर जिम्मेवार टीवी चैनलों ने खूब प्रचारित किया. फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने अफजल गुरु के गुनाह स्वीकार करने की घटना को खारिज कर दिया, जिसे सभी गैर जिम्मेवार टीवी चैनलों ने खूब प्रचारित-प्रसारित किया था, जो पुलिस की विशेष शाखा ने उन्हें मुहैया करायी थी. इससे पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर एसएआर गिलानी को भी झूठी साजिश में फंसाया गया था, जिसकी वजह से वे फांसी के फंदे से बाल-बाल बचे. अरुंधति राय, समाजशास्त्री रजनी कोठारी सहित प्रसिद्ध नागरिकों द्वारा मृत्युदंड का विरोध भी किया गया था. गिलानी बरी हुए. अरुंधति रॉय कहती हैं कि आज तक उन पांच या छह हमलावरों के बारे में कोई नहीं जानता है. क्या यह सब अंदर की बात है? इस साक्षात्कार में अरुंधति राय से इसी सवाल का जवाब खोजने की कोशिश की गयी है. न तो कोई जानता है और न ही स्पष्ट रूप से सिद्ध कर सकता है, क्योंकि पुलिस, जांच एजेंसियां और मीडिया सब मिल कर इस पर प्रचार और झूठ का मुलम्मा चढ़ा रहे हैं. अब कसूरवार होने के सही सबूत न मिलने पर भी साजिश के तहत अफजल गुरु को फांसी की सजा सुना दी गयी है. न्यायालय में मुकदमे की जांच के समय उसकी ओर से कोई कानूनी प्रतिनिधि नहीं था. इसलिए मुकदमे की दोबारा न्यायिक जांच की मांग की जा रही है. तो दूसरी ओर भाजपा उसे फांसी दिलाने पर तुली हुई है. मुकदमे की कानूनी जांच किये बिना आप किसी को फांसी कैसे दे सकते हैं?अरुंधति राय ने 12 दिसंबर को दिल्ली में खचाखच भरे एक आडिटोरियम में पेंगुइन द्वारा प्रकाशित एक नयी किताब 13 दिसंबर : ए रीडर. द स्ट्रेंज केस आफ़ द अटैक आन द इंडिया पार्लियामेंट का विमोचन किया. इस पुस्तक में विभिन्न विद्वानों पत्रकारों और वकीलों द्वारा लिखे गये 15 निबंध हैं, जिन्होंने उपलब्ध तथ्यों के आधार पर संसद हमले के मुद्दे पर संदेहास्पद जांच और पक्षपातपूर्ण न्यायिक प्रक्रिया के खिलाफ गंभीर प्रश्न उठाये हैं. रीडर में अरुंधति राय द्वारा लिखा गया एक इंट्रोडक्शन है. लेखकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि संसद पर किये गये इस हमले से एक ओर पाकिस्तान से सैनिक मोरचाबंदी हुई वहीं उपमहाद्वीप में परमाणु युद्ध का खतरा हो गया. हजारों मासूमों की जानें गयीं और करोड़ों रुपये की बरबादी के बावजूद इस मामले की जांच की कोई आवश्यकता महसूस नहीं की गयी. राय ने 13 सवाल उठाये हैं जो अभी तक अनुत्तरित हैं. लेकिन सबसे बड़ा सवाल अब भी बाकी है कि क्या बिना किसी ठोस सबूत और कानूनी प्रतिनिधित्व के अफजल को फांसी दे दी जायेगी?क्या कट्टरवादी इसलामी आतंकवाद एक सच्चाई है या धोखा या फिर यह भारतीय व्यवस्था की प्रचार मशीनरी और जांच सूत्रों द्वारा बनायी गयी साजिश है?यह न तो पूरी तरह झूठ है और न ही पूरा सच. राबर्ट पेप ने अपनी पुस्तक डाइंग टू विन में बताया है कि कैसे आत्मघाती दस्ते नवउपनिवेशवाद से लड़ने में कारगर रहे हैं. जिसे हम इसलामी आतंकवाद या इसलामी कट्टरवाद जैसे खतरे के रूप में चिह्रित करते हैं, उसका मुक्ति संघर्षों में काफी बड़ा योगदान है. मुक्ति संघर्ष में लोगों को एक सूत्र में पिरोने के लिए धर्म का सहारा लेना कोई नयी बात नहीं है. कट्टरवाद का दूसरा पहलू यह है कि जब लोग खुद को एक विशेष वर्ग या धर्म से जुड़ा मानते हैं तो वे अपने में ही सिमट जाते हैं. इसका तीसरा जटिल रूप यह है कि इसलामी कट्टरवाद अब इस रूप में बदनाम हो गया है कि वे कब्जे के लिए लड़ रहे हैं. और इसलिए वे हमलावर हैं. शुरू में फ़लस्तीन में हमास के साथ हो चुका है, जिससे फ़लस्तीन मुक्ति मोरचा (पीएलओ) जैसा धर्म निरपेक्ष संगठन भी बदनाम हो गया. कश्मीर में भी यही सब हो रहा है. क्योंकि अगर वे प्रतिरोध को कुछ पागल, सनकी लोगों के रूप में जो दुनिया को ध्वस्त करने पर उतारू हैं, चित्रित कर दें तो वे युद्ध का अधिकतर हिस्सा वे जीत चुके होंगे. जो कोई भी कश्मीर में इसलामी कट्टरता की बात करता है उसे देखना चाहिए कि वहां से ज्यादा बुरका मुंबई या पुरानी दिल्ली में महिलाएं पहनती हैं. आप ग्रामीण बिहार की महिलाओं को कश्मीर की महिलाओं से ज्यादा शोषित पायेंगे. लेकिन जहां पुलिस ओर सैन्य बल जितने ही क्रूर होंगे जनता भी वैसी होगी.लश्कर-ए-तोइबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे इसलामी आतंकी संगठनों पर आपकी क्या राय है? मैं उनके बारे में ज्यादा नहीं जानती लेकिन इतना कह सकती हूं कि कश्मीर में इन्हें कोई आतंकी संगठन के रूप में नहीं मानता. ज्यादातर लोग इसे आजादी के संघर्ष के लिए जरूरी मानते हैं. उनके बारे में दिल्ली के लोगों की सोच और कश्मीर के लोगों की सोच में काफी अंतर है.अगर श्रीनगर में एक बम फटने से स्कूल जाते हुए बच्चे मर जाते हैं तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? बहुत भयानक. लेकिन मुझे मीडिया/प्रेस रिपोर्टों को पढ़/देख कर यह नहीं मालूम होगा कि यह सब कौन करता है. वे मिलिटेंट हो सकते हैं मगर समान रूप से वे सुरक्षा बल, पुलिस, कोई धोखेबाज या सरेंडर किया हुआ मिलिटेंट जो पुलिस के लिए काम कर रहा हो, भी हो सकता है. यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है. सच बताना लोगों के लिए बहुत कठिन है. शायद उनसे सच उगलवाया भी नहीं जा सकता. कश्मीर ऐसी घाटी है जहां सैनिक हैं, मिलिटेंट हैं, हथियार है, गोला-बारूद है, जासूस, दोतरफा, एजेंट खुफिया एजेंसी, एनजीओ और बेहिसाब पैसा है. कुछ-से-कुछ होता रहता है वहां. सेना वहां अनाथालय और सिलाई केंद्र चला रही है. टीवी चैनल केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय का है. ऐसे में यह बताना कठिन है कि कौन किसके लिए काम कर रहा है, कौन किसका इस्तेमाल कर रहा है. कभी-कभी लोग खुद भी यह नहीं जान पाते हैं कि वे किसके लिए काम कर रहे हैं या उन्हें किसने लगा रखा है.क्या आपको लगता है कि भारत में मुसलमानों को व्यवस्थित रूप से निशाना बनाया गया है?हां. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में भी तो अप्रत्यक्ष रूप से यही कहा गया है. (यह रिपोर्ट प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त समिति द्वारा तैयार की गयी है, जिसमें कहा गया है कि भारतीय मुसलमान देश का सबसे गरीब पिछड़ा, अशिक्षित और बदहाल समुदाय है, जिसे उच्च या मध्यमवर्गीय नौकरियों में प्रतिनिधित्व ही नहीं मिल पाया है.) गुजरात में जो हो रहा है, मानवता के खिलाफ अपराध है. भाजपा के नेतृत्व में 2002 में दक्षिणपंथी हिंदुओं द्वारा मुसलिम विरोधी नरसंहार में 2000 मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया गया. 1,50,000 को बेघर कर दिया गया. पुनर्वास के बजाय उन्हें पूरी तरह से उजाड़ दिया गया है और अब राज्य से भी बाहर भगाया जा रहा है. हमारी धर्मनिरपेक्ष सरकार भी चुप्पी लगाये हुए है, जिसमें वामपंथी भी शामिल हैं. 2002 की हिंसा तो सबने देखी, लेकिन यह अदृश्य फासीवादी हिंसा भी उतनी ही भयावह है. ऐसा लगता है कि मुसलमान के बारे में हम केवल यही बात करते हैं कि वह या तो पीडि़त है या आतंकवादी. मुझे लगता है कि हम सब एक टाइमबम के ऊपर बैठे हैं.क्या आपको लगता है कि 13 दिसंबर का हमला कोई साजिश का हिस्सा तो नहीं? यह इस पर निर्भर करता है कि अंदर क्या है और बाहर क्या है. मैं नहीं समझती कि हम यह कर सकते हैं. वास्तव में एक के ऊपर एक रखी परतों को खोल कर देखा जाये तो शुरू में ही सच्चाई साफ हो जाती है, जिसमें संसद, न्यायपालिका, मास मीडिया और जब निचली सतह पर कश्मीर में सुरक्षा तंत्र तक पहुंचते हैं तो एसटीएफ़, एसओजी आदि जासूसों, मुखबिरों, सरेंडर मिलिटेंटों आदि के साथ आपस में घुलमिल जाते हैं. ससंद पर हमले के मामले में भी यही खुलासा होना बाकी है. हम यह नहीं जानते हैं कि इसके पीछे कौन लोग थे. बस इतना जानते हैं कि अरेस्ट मेमो से छड़्छाड़ की गयी, जो भी कार्रवाई हुई, उसमें सबूतों और गवाहों को झूठ और दबाव का जामा पहनाया गया था और स्वीकारोक्तियां यातना के भीतर से निकलीं. क्यों? आप कोई रॉकेट वैज्ञानिक तो नहीं है कि अनुमान लगा लेंगे कि जब कोई झूठ बोलता है तो इसका मतलब है कि वह कुछ छिपा रहा है. वह क्या है है, यह हमें जानना है और इसे जानने का मुझे पूरा हक है.
अरूंधति रॉय से अमित सेनगुप्त की बातचीत
अनुवाद : जितेंद्र कुमार
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