Wednesday 22 April, 2009
अब मत कहना मुस्लिमों को वोट बैंक!
भारतीय राजनीति में मुस्लिमों को हम देश की बाकी जनता से अलग करके देखते हैं। हर कोई मान कर चलता है कि राजनीति का सामान्य नियम मुसलमान पर लागू नहीं होता। ये विचार सिर्फ बाहरी लोगों का फैलाया हुआ नहीं है। खुद मुसलमान नेता और जनता भी ये यकीन करती है कि हो न हो वो कुछ अनूठे हैं। यहीं से भारतीय राजनीति में मुसलमानों को बंधक बनाने की कड़ियां शुरू होती हैं। मिथकों का एक ऐसा सिलसिला शुरू होता है, जहां मुस्लिम वोटर की अपनी स्वतंत्र पहचान खो जाती है। वो एक अकेला वोटर नहीं रह जाता, वो एक भीड़ में तब्दील हो जाता है। अपने आप को असाधारण मानते-मानते वो दूसरों की निगाह में असामान्य दिखने लगा है और राजनीति के मिथकों का पात्र बनने के लिए अभिशप्त है। आइए उन मिथकों की एक बानगी देखते हैं, जो मुसलमान को बाकी लोगों की तरह एक आम वोटर स्वीकार नहीं करते।
सबसे पहले है देश की राजनीति में उनकी भागीदारी का सवाल। माना जाता है की मुसलमान राजनीति में ज्यादा शिरकत करते हैं। वो देश के बाकी वोटरों से इतर बड़ी संख्या में वोट डालते हैं। ये सच है कि जिन लोकसभा क्षेत्रों में मुस्लिमों की आबादी ज्यादा है, वहां औसत से ज्यादा वोट पड़ते हैं। लेकिन इसकी वजह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण में छिपी है। जिसके चलते इन इलाकों में हिंदू और मुस्लिम दोनों खुलकर अपने वोट का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन ऐसे लोकसभा क्षेत्र बहुत गिने-चुने हैं। हमारे देश में मुस्लिमों की आबादी महज 13.4 फीसदी है। मतदाता सूची में यह आंकड़ा और सिकुड़ जाता है। देश के अधिकांश चुनाव क्षेत्र ऐसे हैं, जहां मुस्लिम वोटर 10 फीसदी भी नहीं हैं। नेशनल इलेक्शन स्टडीज के जुटाये आंकड़ों से साफ है कि मुसलमानों की चुनाव और देश की राजनीति में भागीदारी बाकी समुदायों से अलग नहीं है।
पिछले चार लोकसभा चुनावों में 59 फीसदी मुसलमानों ने वोट डाले। इसके मुकाबले पूरे देश में औसतन 60 फीसदी लोगों ने अपने वोट का इस्तेमाल किया। दरअसल, अगर कोई फर्क है तो उल्टा है। साल 2004 के लोकसभा चुनाव में मुसलमान वोटरों ने औसत के कहीं कम वोट डाले। अगर हम चुनावों में प्रचार जैसी ज्यादा सक्रिय भूमिका को देखें तो मुस्लिम और हिन्दुओं में कोई बहुत फर्क देखने को नहीं मिलता। इतना ही नहीं, ये आंकड़ा बाकी अल्पसंख्यक समुदायों से अलग नहीं बैठा। शिक्षा और हैसियत जरूर राजनीति में हिस्सेदारी पर असर डालती दिखती हैं, लेकिन मजहब से कोई फर्क नहीं पड़ता।
शायद सबसे प्रचलित मिथक ये है कि सभी मुसलमान मिलकर किसी भी एक पार्टी या उम्मीदवार को वोट डालते हैं। यानी कि मुसलमान एक वोट बैंक हैं। लेकिन आम चुनावों में मुस्लिमों के वोट का रुझान यह साबित नहीं करता कि वो एक वोट बैंक की तरह काम करते हैं। पिछले आम चुनाव में पूरे देश भर में 37 फीसदी मुसलमान वोट कांग्रेस को पड़े। और 17 फीसदी कांग्रेस के सहयोगी दलों को। समाजवादी पार्टी को 16 फीसदी वोट मिले। तो बीजेपी को भी सात फीसदी मुसलमान वोट मिले। इसे वोट बैंक का नमूना कैसा बताया जा सकता है।
बेशक, अगर हम इस पहलू को राज्य की जमीं पर टटोलें तो साफ हो जाता है कि यहां मुस्लिम मतदाता कहीं ज्यादा एकतरफा व्यवहार करता है। लेकिन इसके बावजूद वो वोट बैंक की तरह काम नहीं करते। सिर्फ विकल्पहीनता की हालत में ही वो एकतरफा वोट डालते हैं। खासतौर से जब उसे कांग्रेस और बीजेपी में से किसी एक को चुनना पड़ता है। अगर उन्हें कोई तीसरी पार्टी मिल जाती है तो कांग्रेस की ओर उनका झुकाव कम हो जाता है। या फिर जहां बीजेपी और उसकी किसी सहयोगी की गैरमौजूदगी में दूसरी पार्टियों में मुकाबला सामने आता है। कुल मिलाकर राज्य में मुसलमान वोटर का व्यवहार बहुत हद तक सामान्य जातियों की तरह ही है। आजकल खासतौर पर बिहार और उत्तर प्रदेश में मुसलमान समाज के भीतर जात बिरादरी का फर्क भी उनकी राजनीतिक पसंद नापसंद पर असर डालने लगा है।
एक मिथक ये भी है कि मुसलमान एक रणनीति के तहत आखिरी घंटों तक अपने फैसले को टालते रहते हैं। कुछ इलाकों में ऐसा होता भी है। लेकिन पूरा देश एक स्तर पर आंकड़े की बात की पुष्टि नहीं करता। अगर 33 फीसदी हिन्दू चुनाव के दिन या एक दिन पहले अपना वोट तय करते हैं तो मुसलमानों में यह आंकड़ा महज 31 फीसदी था। एक और मिथक ये भी है कि मुसलमान अपना फैसला खुद नहीं लेते। इनका फैसला पारंपरिक नेताओं और मौलवियों के जरिए होता है। ऐसा भी कहा जाता है कि मुस्लिम वोटर का फैसला रोजमर्रा के जरूरी मुद्दों की बनिस्पत इस्लाम की सोच और समुदाय के मुद्दों पर ज्यादा टिका होता है। लेकिन मुस्लिम वोटर को लेकर बनी इस धारणा में भी कोई दम नहीं है। वोटिंग पर किए गए शोध ये दिखाते हैं कि बाकी हिन्दुस्तानी वोटर की तरह वो भी पहले पार्टी देखता है, फिर उम्मीदवार और आखिर में जात। मुसलमान पुरुष हो या महिला-ये दोनों ही मौलवी या किसी धार्मिक नेता से उतना ही प्रभावित होते हैं, जितना किसी दूसरे समुदाय के वोटर।
अमेरिका से चली ये धारणा हमारे देश में भी फैल रही है कि इस्लाम और लोकतंत्र का छत्तीस का आंकड़ा है। इसी सोच का एक और सिरा भारत में उभार लेता है। इसके मुताबिक भारतीय मुसलमान खुद का राजनीतिक ढांचे से अलगाव महसूस करता है। लेकिन हाल ही में दक्षिण एशिया के पांच देशों में किए एक सर्वे के नतीजे साबित करते हैं कि लोकतंत्र मे सहयोग देने को लेकर मुस्लिम और हिन्दुओं में कोई फर्क नहीं है। मुसलमान लोकतान्त्रिक राजनीति से खुद को अलग नहीं कर रहे हैं।
भारतीय मुसलमानों की राजनीतिक तस्वीर को समझने के लिये जरूरी है कि इन टूटते मिथकों के साथ-साथ हम दो बड़े सच को भी जोड़ लें। सच्चर कमिटी की रिपोर्ट के मुताबिक मुस्लिम न सिर्फ हाशिये पर हैं, शिक्षा रोज़गार, आवास और आर्थिक तौर पर भी उनसे भेदभाव किया जाता है। दूसरा एक बड़े सच से रूबरू कराया है प्रोफेसर इकबाल अंसारी ने। इन्होंने मुस्लिम सांसदों और विधायकों का आकलन किया। इनके मुताबिक राज्य स्तर पर भी मुस्लिम का प्रातिनिधित्व अपनी आबादी के अनुपात से आधे से भी कम था।
अगर हम इन मिथकों और सच को एक साथ रख लें तो हम मुसलमानों की राजनीतिक त्रासदी से रूबरू होते हैं। भारत के मुसलमान की हालत अमेरिका में अश्वेतों की तरह है। रिपब्लिकन उनके बारे में इसलिये नहीं सोचते क्योंकि वो जानते हैं कि उनका वोट उन्हें नहीं मिलेगा। डेमोक्रेट इसलिये उन्हें भाव नहीं देते क्योंकि उन्हें भरोसा है कि वो उन्हें ही वोट देंगे। मुस्लिम के आस पास बुने इस मिथकों के मकड़जाल ने उन्हें राजनितिक बंधक बना दिया है। पहले कांग्रेस उन्हें बंधक मानकर चलती थी, आज कांग्रेस के साथ-साथ समाजवादी पार्टी और आरजेडी जैसी पार्टियां भी यही सोचती हैं। दरअसल,मुसलमान को साधारण बताने और उनको बंधक बताने के बीच गहरा रिश्ता है। मुसलमान वोटर की राजनितिक मुक्ति के लिये उन्हें मिथकों के इस मकड़जाल से बाहर निकल कर देखना होगा। एक आम हिन्दुस्तानी वोटर की तरह।
इन सब के बीच मौजूदा चुनाव मुसलमानों के लिये राजनीतिक मुक्ति का एक नया दरवाजा खोलता है। अब मुस्लिम वोटर पहले से मौजूद पार्टियों से इतर नए विकल्प तलाश सकता है। असम मे एयूडीएफ कांग्रेस को चुनौती दे रही है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के सामने मिल्ली काउंसिल है। बिहार में पसमांदा मुस्लिम राजनीति आरजेडी के लिये परेशानी का सबब है। केरला मे इंडियन मुस्लिम लीग के सामने पीडीपी है। इसमें कोई शक नहीं है कि ये चुनौती कमोबेश सांप्रदायिक राजनीति के भीतर से आ रही हैं। ये विकल्प अक्सर बहुत मौकापरस्त पार्टियों के जरिए आ रहे हैं। बहुत दिन तक बने रहने की संभावना नहीं है लेकिन ये नए विकल्प दीर्घकाल में मुसलमान वोटर को बाकी समुदायों की तरह इस लोकतान्त्रिक मुकाबलों मे अपने पांव पर खड़े होने में मदद जरूर करेंगे।
पोस्टेड योगेंद्र यादव
ibn se sabhar
Monday 15 December, 2008
Terror: The Aftermath
The attack on Mumbai is over. After the numbing sorrow comes the blame game and the solutions. Loud voices amplified by saturation TV: Why don't we amend our Constitution to create new anti-terror laws? Why don't we arm our police with AK 47s? Why don't we do what Israel did after Munich or the USA did after 9/11 and hot pursue the enemy? Solutions that will lead us further into the abyss. For terror is a self-fulfilling prophecy. It thrives on reaction, polarization, militarization and the thirst for revenge.
The External Terror Those who invoke America need only to analyze if its actions after 9/11 increased or decreased global terror. It invaded oil-rich Iraq fully knowing that Iraq had nothing to do with 9/11, killing over 200,000 Iraqis citizens but allowing a cornered Bin Laden to escape from Afghanistan. It recruited global support for Islamic militancy, which began to be seen as a just resistance against American mass murder. Which begs the question of who created Bin Laden in the first place, armed the madarsas of Pakistan and rejuvenated the concept of Islamic jehad? Israel played its own role in stoking the fires of jehad. The very creation of Israel in 1948 robbed Palestinians of their land, an act that Mahatma Gandhi to his credit deplored at the time as an unjust way to redress the wrongs done to Jews during the Holocaust. What followed has been a slow and continuing attack on the Palestinian nation. At first Palestinian resistance was led by secular fo rces represented by Yasser Arafat but as these were successfully undermined, Islamic forces took over the mantle. The first, largely non-violent Intifada was crushed, a second more violent one replaced it and when all else failed, human bombs appeared.
Thirty years ago when I first went abroad there were two countries my Indian passport forbade me to visit. One was racist South Africa. The other was Israel. We were non-aligned and stood for disarmament and world peace. Today Israel and America are our biggest military allies. Is it surprising that we are on the jehadi hit list? Israel, America and other prosperous countries can to an extent protect themselves against the determined jehadi, but can India put an impenetrable shield over itself? Remember that when attackers are on a suicide mission, the strongest shields have crumbled. New York was laid low not with nuclear weapons but with a pair of box cutters. India is for many reasons a quintessentially soft target. Our huge population, vast landmass and coastline are impossible to protect. The rich may build new barricades. The Taj and the Oberoi can be made safer. So can our airports and planes. Can our railway stations and trains, bus stops, busses, markets and lane s do the same?
The Terror WithinThe threat of terror in India does not come exclusively from the outside. Apart from being hugely populated by the poor India is also a country divided, not just between rich and poor, but by religion, caste and language. This internal divide is as potent a breeding ground for terror as jehadi camps abroad. Nor is jehad the copyright of one religion alone. It can be argued that international causes apart, India has jehadis that are fully home grown. Perhaps the earliest famous one was Nathuram Godse who acting at the behest of his mentor Vinayak Savarkar (still referred to as "Veer" or "brave" although he refused to own up to his role in the conspiracy), murdered Mahatma Gandhi for the crime of championing Muslims.
Jump forward to 6th December, 1992, the day Hindu fanatics demolished the Babri Mosque setting into motion a chain of events that still wreaks havoc today. From the Bombay riots of 1992 to the bomb blasts of 1993, the Gujarat pogroms of 2002 and hundreds of smaller deadly events, the last 16 years have been the bloodiest since Partition. Action has been followed by reaction in an endless cycle of escalating retribution. At the core on the Hindu side of terror are organizations that openly admire Adolph Hitler, nursing the hate of historic wrongs inflicted by Muslims. Ironically these votaries of Hitler remain friends and admirers of Israel.
On the Muslim side of terror are scores of disaffected youth, many of whom have seen their families tortured and killed in more recent pogroms. Christians too have fallen victim to recent Hindutva terror but as yet not formed the mechanisms for revenge. Dalits despite centuries of caste oppression, have not yet retaliated in violence although a small fraction is being drawn into an armed struggle waged by Naxalites.
It is clear that no amount of spending on defense, no amount of patrolling the high seas, no amount of increasing the military and police and equipping them with the latest weaponry can end the cycle of violence or place India under a bubble of safety. Just as nuclear India did not lead to more safety, but only to a nuclear Pakistan, no amount of homeland security can save us. And inviting Israel's Mossad and America's CIA/FBI to the security table is like giving the anti-virus contract to those who spread the virus in the first place. It can only make us more of a target for the next determined jehadi attack.
Policing, Justice and the MediaAs for draconian anti-terror laws, they too only breed terror as for the most part they are implemented by a State machinery that has imbibed majoritarian values. So in Modi's Gujarat after the ethnic cleansing of Muslims in 2002, despite scores of confessions to rape and murder captured on hidden camera, virtually no Hindu extremists were punished while thousands of Muslims rotted in jail under draconian laws. The same happened in Bombay despite the Shiv Sena being found guilty by the Justice Shrikrishna Commission. Under pressure a few cases were finally brought to trial but all escaped with the lightest of knuckle raps. In stark contrast many Muslims accused in the 1993 bomb blasts were given death sentences.
The bulk of our media, policing and judicial systems swallows the canard that Muslims are by nature violent. Removing democratic safeguards guaranteed by the Constitution can only make this worse. Every act of wrongful imprisonment and torture that then follows is likely to turn innocents into material for future terrorists to draw upon. Already the double standards are visible. While the Students Islamic Movement of India is banned, Hindutva outfits like the RSS, the VHP, the Bajrang Dal, and the Shiv Sena remain legal entities. The leader of the MNS, Raj Thackeray recently openly spread such hatred that several north Indians were killed by lynch mobs. Amongst these were the Dube brothers, doctors from Kalyan who treated the poor for a grand fee of Rs.10 per patient. Raj Thackeray like his uncle Bal before him, remains free after issuing public threats that Bombay would burn if anyone had the guts to arrest him. Modi remains free despite the pogroms of Gujarat. Congress party murderers of Sikhs in 1984 remain free. Justice in India is clearly not there for all. Increasing the powers of the police cannot solve this problem. Only honest and unbiased implementation of laws that exist, can.
It is a tragedy of the highest proportions that one such honest policeman, Anti-Terrorist Squad chief Hemant Karkare, who had begun to unravel the thread of Hindutva terror was himself gunned down, perhaps by Muslim terror. It is reported that Col. Purohit and fellow Hindutva conspirators now in judicial custody, celebrated the news of Karkare's death. Until Karkare took charge, the Malegaon bomb blasts in which Muslims were killed and the Samjhauta Express blasts in which Pakistani visitors to India were killed were being blamed on Muslims. Karkare exposed a hitherto unknown Hindutva outfit as masterminding a series of killer blasts across the country. For his pains Karkare came under vicious attack not just from militant Hindutva but from the mainstream BJP. He was under tremendous pressure to prove his patriotism. Was it this that led this senior officer to don helmet and ill-fitting bullet proof vest and rush into battle with a pistol? Or was it just his natural i nstinct, the same courage that had led him against all odds, to expose Hindutva terror?
Whatever it was, it only underlines the fact that jehadis of all kinds are actually allies of each other. So Bin Laden served George Bush and vice-versa. So Islamic and Hindutva jehadis have served each other for years. Do they care who dies? Of the 200 people killed in the last few days by Islamic jehadis, a high number were Muslims. Many were waiting to board trains to celebrate Eid in their hometowns in UP and Bihar, when their co-religionists gunned them down. Shockingly the media has not commented on this, nor focused on the tragedy at the railway station, choosing to concentrate on tragedies that befell the well-to-do. And it is the media that is leading the charge to turn us into a war-mongering police state where we may lead lives with an illusion of safety, but with the certainty of joylessness.
I am not arguing that we do not need efficient security at public places and at vulnerable sites. But real security will only come when it is accompanied by real justice, when the principles of democracy are implemented in every part of the country, when the legitimate grievances of people are not crushed, when the arms race is replaced by a race for decency and humanity, when our children grow up in an atmosphere where religious faith is put to the test of reason. Until such time we will remain at the mercy of "patriots" and zealots.
Anand Patwardhan
November 2008
Friday 11 July, 2008
An article
read my article on Tehelka
http://www.tehelkahindi.com/SthaayeeStambh/KhulaaManch/768.html
Mrityunjay Prabhakar
Wednesday 9 July, 2008
और लेफ्ट एक बार फिर ऐतिहासिक भूल कर बैठा
यह हमारे देश और देश की जनता की बिडम्बना ही है की अपने को जनता का प्रतिनिधि पार्टी कहने वाली लेफ्ट पार्टियाँ हमेशा से ऐतिहासिक भूलें करती आयीं हैं. उसकी ईमानदारी पर अविश्वास इसलिए भी नहीं कर सकते की वोह इसे तहे-दिल से स्वीकार भी करती आई है. कुछ-कुछ इस शक्ल में की 'लो जी फिर से एक ऐतिहासिक भूल हो गई. अब क्या करें. हम करना तो कुछ ऐसा चाहते थे. पर हो कुछ और ही गया.' इस बार भी लेफ्ट से ऐतिहासिक भूल हो ही गई. आज नहीं (क्यूंकि बैठकों में काफी वक्त लगता है) पर कल जरूर लेफ्ट वाले यह सच सबके सामने स्वीकार करेंगे की 'लो जी एक और भूल हो गई'. पर उसमें अभी काफी समय है.
आख़िर बेचारे वह भी क्या करें. मार्क्स-लेनिन ने इतना लिख डाला है की पढ़ते-पढ़ते तरुनाई में ही ऑंखें खरब कर लेते हैं. बाकि पता नही कितने विचारक हो चुके हैं. उनसे भी निपटना जरूरी होता है. आख़िर यही पढ़ाई तो उनकी 'पूंजी' है जिसके बल पर पोलिट ब्यूरो में बैठकर राजनीति करने का हक उन्हें मिलता है. वरना अगर जनता के बीच रहकर पैर घिस रहे होते तो बाटा की हजारों चप्लें घिसने के बाद भी शायद ही डिस्ट्रिक्ट कमिटी का चेहरा देख पाते. अब जब आँखों से साफ़ दिखाई ही नहीं दे तो गलती होनी तो स्वाभाविक ही है. अभी कुछ दिनों पहले ही एक पत्रकार बंधू कह रहे थे, 'परिवर्तन इतनी तेजी से हो रहा है की आपकी ऑंखें चुन्धियाँ जाएँगी. समय बिल्कुल राजधानी और शताब्दी एक्सप्रेस की तरह भाग रहा है. प्लेटफार्म पर खड़े किसी व्यक्ति को सिर्फ़ इतना ही दीखता है की कोई ट्रेन कुछ गुजर गई. उसपर लिखी इबारत नहीं दिखती.' यहाँ तो पहले से ही आँखों में मोतिअबिंद हुआ पड़ा है. ऐसे में कुछ खाक दिखेगा.
पर उनकी ईमानदारी पर आप सक नहीं कर सकते. देखियेगा कोई पांच साल बाद एक बयान आयेगा (आदत के मुताबिक) की 'लो जी एक और भूल हो गई'. कारण मैंने पहले की बताया है, आखिर लोकल कमिटियों से लेकर पोलित ब्यूरो तक कोई निर्णय लेने में इतना वक्त तो लगेगा ही. उसपर पार्टी कोई एक राज्य में थोड़े न है. तीन राज्यों में तो सरकार चला रहें हैं. उसपर थोड़ा बहुत आधार कुछ और राज्यों में भी है. कहीं आधार नहीं भी है तो क्या पार्टी तो है. वहां की भी राय सुनी जानी जरूरी है. फिर पार्टी के भीतर वाद-विवाद और बहस-मुबाहिसा का वातावरण बरक़रार रखने के लिए अलग-अलग धडे भी तो हैं. आखिर इन सबको समेटने में वक्त तो लगता ही है.
खैर, तो बात हो रही थी 'ऐतिहासिक भूल की'. लेफ्ट वाले यह समझकर सरकार को समर्थन दिए जा रहे थे की सरकार कोई भी जन-विरोधी कदम नहीं उठा रही है. मंहगाई का क्या. गलोब्लैजेशन का ज़माना है. मंहगाई भी आखिरकार ग्लोबल फेनोमेनों है. कब तक रोक पायेगी सरकार. पेट्रोल-डीज़ल का दम भी बढेगा. ग्लोबल वर्मिंग के ज़माने में फल-सब्जिओं और खाद्यान के दामों में तो आग लगेगी ही. कुछ भी है एक सेकुलर सरकार तो है. और इसे साम्राज्वाद विरोधी भी बनाकर ही दम लेंगे. मनमोहन और चिदम्बरम पहले भले ही वर्ल्ड बैंक की घुलामी बजा चुके हों. अब ऐसा कभी नहीं करने देंगे. उन्हें भी थोड़ा ह्यूमन टच भर देने की जरूरत है. वे ख़ुद ही समझ जायेंगे. कुछ ऐसा ही मुगालता पले बैठे थे हमारे लेफ्ट बंधू. कितने भोले हैं हमारे कर्णधार. इतने भोलेपन से पॉलिटिक्स करते हैं जैसे कोई बच्चा अपनी माँ के साथ पॉलिटिक्स करता है. चॉकलेट नहीं मिले तो रोने लगता है. माँ भी उसकी हर अदा जानती है. प्यार से झिड़क देती है. इतने भोलेपन पर ही शायद विनोद कुमार शुक्ल ने लिखा है: 'इतने भोले मत बन जन साथी, जैसे होते सर्कस के हाथी'. बेचारों को बिल्कुल नचा कर छोड़ दिया. चार साल तक अपना मतलब भी साधा और फ़िर ठेंगा भी दिखा दिया. साम्रार्ज्वादी आस्तीन के साँपों को तो डसना ही आता है. डंस लिया आखिरकार. पर लेफ्ट वाले बेचारे इसमे क्या करें. उन्होंने तो जी भरके कोशिश की इनका हृदय परिवर्तन हो जाए. नहीं हो सका तो समर्थन वापस भी ले ली. इससे ज्यादा क्या कर सकते थे.
अब अगर यह न्यूक्लियर डील हो जाती है. तो लेफ्ट की कोई जिम्मेदारी नही है. वो तो सरकार को अब समर्थन नहीं कर रहे. समाजवादी वाले इनके मुंहबोले भाई लोग कर रहे हैं. लालू-मुलायम को कितना चाहते थे बेचारे. क्या-क्या नहीं किया इनके लिए. दुनिया भर की तोहमतें लीं. फिर भी वे धोका देकर कांग्रेस के खेमे में चले गए. और शुक्र है की अभी तक कांग्रेस के खेमें में है. वह भी लेफ्ट की वजह से, नहीं तो बीजेपी के खेमें में चले जाते तो क्या कर लेते. लेफ्ट का पढाया पाठ की साम्प्रयादिकता बहुत बड़ा खतरा है, उन्हें याद रह गया है. आखिर सब कुछ भूलने में वक्त तो लगता ही है. वरना हो सकता है वह सीधे बीजेपी के खेमे में ही चले जाते. आख़िर अमर सिंह ने तो कह ही दिया, सुरजीत साहब की दिल्ली इच्छा थी की वह कांग्रेस के नजदीक आ जायें सो वो आ गए. कुछ अलग थोड़े ही कर रहे हैं. सुर्जितवाद को ही अपना रहे हैं.
यह भी कम बड़ी विडम्बना नहीं है की लेफ्ट बंधू जिसे पानी पी पी के कोसते हैं वह होकर ही रहता है. बीजेपी को इतना कोसा की उनकी सरकार तक बन गई. साम्प्रय्दिकता के नम पर क्या क्या और किस्से समझौता नहीं किया. पर जितना उसे कमजोर करने की कोशिश करते हैं. मजबूत होती जाती है. अभी देखिये. कांग्रेस को समर्थन दिया था की बीजेपी शाषण से दूर रहे पर उसके कदम १० जनपथ की तरफ बढ़ते ही जा रहे है. अब डील के पीछे पड़े थे वह भी अब होकर ही रहेगा. लेफ्ट की छवि भी कुछ उलटी बन गई है. अब तो खाए पिए लोग यह सोचने लगे हैं की लेफ्ट विरोध कर रहें हैं तो जरूर वह देश के हित में होगा. भाई -बंधुओं को इसपर भी जरा विचार करना होगा.
कितने मौके आए जब सरकार गिरा सकते थे पर नहीं बीजेपी आ जाएगा का भय दिखाते रहे. कुछ कुछ उस आदमी की तरह जो झूट मूठ हॉल मचाता था की शेर आया. लोग दौड़-दौड़कर परेशान. औ रजब शेर आया तो कोई भी साथ नही था. यही हाल हो गया बेचारों का. तीसरा मोर्चा का बनता पलीता फ़िर लुढ़क गया. और बेचारे अकेले खड़े हैं. कुछ कुछ उन्ही अभिशप्त आत्मायों की तरह जो अकेले रहने को अभिशप्त हैं.
हो सकता है पाँच साल वाद वाले बयान में यह भी आए, की हमने सरकार को समर्थन देना ही नहीं था. यह भी एक ऐतिहासिक भूल थी. पर इसकी सम्भावना कम है. पर कहने वाले तो कहेंगे ही की यूपीऐ सरकार को समर्थन देना भूल थी. पर ऐसा नक्सल वाले कहते हैं. या बीजेपी वाले. यह कहकर दरकिनार कर दिया जाएगा. उन्हें यह बात भी स्वीकार करने में हिचक होगी की सरकार से थोड़ा पहले समर्थन वापस ले लेते तो शायद न सरकार बच पाती न ही डील सम्भव होता. पर बेचारे क्या करते . मनमोहन ने उड़ने के बाद बोला की जा रहे हैं डील करने. लेफ्ट वाले तो समझ रहे थे. जायेंगे मौज-मस्ती कर के वापस आ जायेंगे. ऐसे सम्मिट तो होते ही रहते हैं.
पर कहीं न कहीं किसी न किसी लोकल कमिटी की फाइल में जरूर दबा रह जाएगा की 'देर हो गई थी'.
मृत्युंजय प्रभाकर
Sunday 1 June, 2008
Dr. Binayak Sen ke masle par kuch sawal jawab
Mrityunjay - ........bhai sahab apne baat shuru ki hai to uska jawab bhi aap sun len.. Dr. Binayak Sen agar desh ki nazar men apradhi hai .. to mera nam us desh se kat dijiye.. Jisne apna pura jeevan garibon ki seva me lagaya woh isliye kharab ho jata hai ki uspar naxaliyon ka sath dene ka arop hai...
aur wo log jo din raat garibon ka khoon pi rahe hain..
desh ke humran bane baithe hain.. wo deshbhakt hain..
aisi deshbhakti apko hi mubarak ho..
JAI - ....aadarniya bhai saahab....sen ke dedication pe koi question mark nahi hai.....uske tailent pe bhee koi shako-shubaha nahi hai kisi ke....but yahi kaafee nahi hota...is maandand pe to aap OSAMA-BIN-LAADEN ko bhee naayak kaa darzaa de sakte hain....hai naa????sawaal itnee hee hai ke aapko loktantra aaur unkee paramparaao kaa samman karnaa hee hota hai...at least ek sabse kam buree padhati ke roop mae hee sahee.....democracy kaa koi vikalp nahi hai...aaur naxali kitne gareebo ke maseeha hai...wo SALWA-JUDUM ne saabit kar diyaa hai.....mera nivedan bas itna hai ke yadi waastava mae aapke pass JANAADHAR hai....to usko saabit karne kaa CHUNAAV hee ekmaatra tareeka hai......aaur sansdiya pranaalee hee ekmaatra raasta.....thats all.
Mrityunjay - ..na to main naxali hoon, na hi unse samvedna rakhta hun, par ek patrakar hone aur rational insan hone ke nate (agar tum man sako to) itna jaroor kah sakta hun ki salwa judum ne sach men yah sabit kar diiya hai ki naxal hi garibon ke/adivasion ke sath hain.. wahaan ki sarkar nahin. kyunki jo salwa judum sarkar ne chalaya.. unhen wahan ke logon ne apne ghar/gaon se bhaga diya hai.
jahan tak rahi loktantra ki baat.. to ek loktantrik sarkar kamse kam yah nahin karti jo wahan ki sarkar apni hi janta ke sath kar rahi hai. is loktantra ne kuch hi logon ka bhala kiya hai usme main aur tum shamil hain.. baki 60-70 % janta jis tabahi ke daur se gujar rahi hai.. uska tumhe koi andaja nahin hai.. tum chahte bhi nahin kunki tumhari ankhon par woh nasha sawar hai jo har tript admi ke ankhon me hoti hai.
jahan tak rahi osama bin laden ki baat.. aisa tark tum jaise sampradayik charitra ke log hi dete hain.. tumne narendra modi ka nam laden ki jagah par kyun nahin liya.
narendra modi laden se jyada desh ke liye ghatak hai.